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जीवसमास देवगति में भी मात्र भवनपति तथा व्यन्तर में जन्म ले सकते हैं। उनकी अधिकतम आयु भी प्रथम नरक की आयु के समतुल्य ही होता है।
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तमसमपा सयलपसू मणुयगई आणयाईमा ।। २४५।। गाथार्थ- तेजस्काय तथा वायुकाय के(एकेन्द्रिय तिर्यंच)जीव तिर्यश्च में ही उत्पन्न होते हैं। शेष तिर्यच अर्थात् पृथ्वीकाय, अपकाय तथा वनस्पतिकायादि के जीत्र पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च तथा मनुष्यगति में भी उत्पन्न हो सकते है। लमतमा अर्थात् सातवी नरक के नारकी पात्र पचन्द्रिय तियञ्च में ही जन्म लेते हैं तथा आनत आदि देवलोकों के देव मनुष्यगति में ही उत्पन्न होते हैं।
विवेचन-तेजस्काय तथा वायुकाय के जीव मात्र तियंश्च गति में ही उत्पन्न होते हैं, नरक देव तथा मनुष्यगति में उत्पन्न नहीं होते हैं। शेष पृथ्वीकाय, अपकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय आदि तिर्यञ्च गति तथा मनुष्यगति में जन्म ले सकते हैं किन्तु नारक तथा देवगति में नहीं।
सातवीं नरक के नारकी जीव मात्र तिर्यच गति में जन्म लेते है, मनुष्य गति में नहीं। वृहद्संग्रहणी गाथा २९३ तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति- सूत्र के चौबीसवें शतक के इक्कीसवें उद्देशक में भी यही बात कही गई हैं (नो अहेसत्तम पुढविनेर हिलो उपवजंति)
आनतादि- ऊपर के देवलोक के देव मरकर मात्र मनुष्य ही बनते हैं।
देवगति वाले कहाँ-कहाँ जन्म ले सकते हैं इसे अगली गाथा में स्पष्ट किया गया है।
विशेष-नारकी जीवो में प्रथम नरक से निकलकर चक्रवर्ती, प्रथम एवं दूसरे नरक से निकलकर बलदेव या वासुदेव; प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय नरकों से निकलने वाले जोय तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकते हैं। इसी प्रकार चौथो नरक से निकलने वाले जीव केवलज्ञान, पांचवी नरक से निकलने वाले जीव सर्वविरति चारित्र अर्थात् संयम, छठी नरक से निकलने वाले जीव देशविरति चारित्र या अणुव्रत तथा सातवी नरक से निकलने वाले जीव समकित प्राप्त कर सकते हैं। (वृहद्संग्रहणी, गाथा २९१-२९२)
नरक से निकलने वाले जीव निश्चय ही गर्भज,पर्याप्त संख्यात आयुवाले मनुष्य या तिर्यञ्चगति में जन्म लेते हैं, अन्यत्र नहीं। (वृहसंग्रहणी, गाथा-२९०)