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अन्तर-द्वार १. उपपात स्थान
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अन्तर-काल की परिभाषा
जाम लामो अत्स्य पाये जोग भाडे हिरो दाह
जाप न उपोह भाषो सो व तमंतरं हवइ।। २४३।। गाथार्थ-जीव की जिस गति और जिस पर्याय अर्थात् अवस्था को छोड़कर अन्य किसी गति या अवस्था (पर्याय) में उत्पत्ति हुई हो, जब तक पुनः उसी गति या अवस्था की प्राप्ति नहीं हो तब तक के काल को अन्तर-काल कहते हैं।
विवेचन-नो जीव जिस गति को या जिन भावों (पर्यायों) को छोड़कर आया है उन्हें जब तक पुनः प्राप्त न कर ले, तब तक के काल को अन्तर काल कहते हैं, यथा-कोई जीव देवगति से मनुष्यगति में आया और जब तक वह पुनः देवगति प्राप्त न कर ले तब तक का काल देवगति का अन्तर-काल है।
सव्या गई नराणं सन्नितिरिम्वाण जा सहस्सारो।
पम्माएँ भवगवंतर गच्छा सयलिंदिय असण्णी ।। २४४।। गाथार्थ- मनुष्यों की गति सर्वत्र है। संज्ञी तियञ्च सहस्रार देवलोक तक जाते हैं। असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय घम्मानरक, भुवनपति तथा व्यन्तर-देव में जाते हैं।
विवेचन-मनष्य मरकर चारों ही गतियों में जन्म ले सकता है। चारों गतियों के अतिरिक्त मनुष्य पंचमगति मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है।
संझी-पंचेन्द्रिय-तिर्यंच भी चारों गतियों में जन्म ले सकते हैं पर मनुष्य की अपेक्षा उनकी देवगति का व्याप्ति-क्षेत्र कम है यथा-वैमानिक देवों में वे मात्र आठवें सहस्रार देवलोक तक ही जन्म ले सकते हैं।
___ असंज्ञी-पंचेन्द्रिय भी चायें गतियों में जन्म ले सकते हैं परन्तु संशी-पंचेन्द्रिय की अपेक्षा उनका क्षेत्र सीमित होता है। संशी-पंचेन्द्रिय सातवीं नरक तक जन्म ले सकता है परन्तु असंही-पंचेन्द्रिय मात्र प्रथम धम्मा नरक तक ही जन्म ले सकते हैं। आयु में भी वे पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण आयु वाले होते हैं, अधिक नहीं।