Book Title: Jivsamas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 248
________________ काल-द्वार योगों का काल (अनेकजीवामयी) पल्लासंखिपभागो वेनियमिस्सगाण अणुसारो। भित्रमानं आहारमिसमासेमाण सव्वद्धं ।। २३९।। गाथार्थ- वैक्रियमिश्र काययोग का सततकाल पल्योपम के असंख्यात के भाग जितना है तथा आहारकमिश्र काययोग का सततकाल अन्तर्महर्त परिमाण ही होता है। शेष योग सदैव होते रहते हैं। ___ विवेधन-वैकिपमिश्र काययोग-जिसमें वैक्रिय काय का कार्मण काय के साथ योग होता है, यह वैक्रिय मिश्र काययोग है। नरक तथा देवगति में पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण उत्कृष्ट से वैक्रियमिश्र काययोग सतत प्राप्त है, उसके बाद उसका विरह है। वैक्रिय लब्धिधारी तिर्यश्च तथा मनुष्य बैंक्रियशरीर का आरम्भ या बैंक्रिय शरीर का त्याग करते समय वैक्रिय मिश्रकाय योग वाले होते हैं, ये हमेशा होते हैं। इनका विच्छेद कभी नहीं होता है। सामान्यतः नरक में सदा होते हैं। आहारकमिश्न काययोग- औदारिक शरीर के साथ आहारक शरीर का मिश्रण आहारकमिश्र काययोग कहलाता है। वह अन्तर्मुहर्त तक रहता है। पन्द्रह कर्म-भूमियों में चौदह पूर्वो के धारक मुनि सतत रूप से अन्तर्मुहूर्त तक ही आहारक मित्र काययोग में होते हैं। उसके बाद या तो मात्र आहारक काययोग होता है या उसका अभाव होता है। औदारिकमिन काययोग तथा औदारिक काययोग-ये दोनों ही असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों की राशि के समतुल्य होते हैं, क्योंकि ये दोनों काययोग सामान्यतः तिर्यश्च तथा मनुष्यों में अविच्छिन्न (सतत) रूप से होते हैं। कार्मण काययोग-कार्मण काययोग तो सर्वसंसारी जीवों को हमेशा होता है, उसका कभी भी अभाव नहीं होता। शेष सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग तो विभित्र जीवों की अपेक्षा से सर्वकाल में ही होते है। औदारिक शरीर तथा बैंक्रिय शरीर सतत रहते हैं पर आहारक शरीर का कभी-कभी उत्कृष्ट से लोक में, छ: माहपर्यन्त अभाव होता है तथा एक समय में आहारक शरीर जघन्य से एक, दो, तीन, चार तक होते हैं तथा उत्कृष्ट से एक समय में एक साथ सहस्त्र पृथक्त्व (१०००से लेकर ९०००) तक होते हैं। _इस प्रकार जीवसमास की भवस्थिति, कायस्थिति तथा गुणविभाग स्थिति विषयक काल की चर्चा हुई। अब ग्रन्थकार इस विषय का उपसंहार कर रहे हैं

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