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काल-द्वार
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१०. विभंगज्ञान-प्रज्ञापना (सूत्र १३५३) में प्रश्न किया गया है कि हे भगवन् ! विभंगज्ञान का काल कितना है? है गौतम जघन्यकाल एक समय तथा उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि अधिक तैतीस सागरोपम तक होता है।
११. सासावन-सास्वादन गुणस्थान का जघन्यकाल एक समय तक उत्कृष्ट काल छ: आवलिका का कहा गया हैं। (जीवसमास, गाथा २२१)।
जघन्यकाल
आगाज्मा व सथा वीसपद्धत्तं च होड़ वासाणं। छेपपरिहारगाणं जाहण्णकालाणुसारो उ ।। २३७।।
गाथार्थ-छेदोपस्थापनीय चारित्र का जघन्य काल ढाई सौ (२५०) वर्ष तथा परिहारविशुद्धि का जघन्य काल बीस पृथक्त्व वर्ष अर्थात् एक सौ अस्सी वर्ष जानना चाहिये।
विवेचन- दोनों चारित्र को जघन्य स्थिति बतायी जाती है
१. छेदोपस्थानीय बारिश-नोशथा नील सा यह जय काल अनेक जीवों की अपेक्षा से है। उत्सर्पिणी के तीसरे आरे में प्रथम तीर्थकर के द्वारा संघ स्थापना के पश्चात् छेदोपस्थापनीय चारित्र का प्रारम्भ होता है। फिर दूसरे से तेईस तीर्थकर के काल में इस चारित्र का अभाव रहता है।
२. परिहारविराजि चारित्र- इसका जघन्य काल बीस पृथक्त्व अर्थात् (Ex२०=१८०) वर्ष है। यथा सौ वर्ष की आयु वाले नौ साधु- उनतीस (गर्भकाल सहित ९ वर्ष में दीक्षा लें तथा २० वर्ष का चारित्र पर्याय हो) वर्ष की उम्र में अवसर्पिणी के अंतिम तीर्थकर (यथा महावीर प्रभु) के पास परिहारविशद्धि चारित्र को स्वीकार कर के इकहत्तर (७१) वर्ष तक इस चारित्र का पालन करे। पुन: एक नौ साधुओं का समुदाय इन चारित्रधारियों से परिहारविशुद्धि चारित्र को स्वीकार कर एकहत्तर (७१) वर्ष इस चारित्र को पालन करे तो इसका जघन्य काल एक सौ बयालीस (१४२) वर्ष होता है। यह काल बीस पृथक्त्व (१८०) वर्ष के अन्दर है। अत: इसका काल बीस पृथक्त्व कहा गया है। . यह चारित्र तीर्थकर या तीर्थकर के हाथ से दीक्षित ही दे सकते हैं अन्य कोई नहीं। अतः उसके बाद इस चारित्र की परम्परा नहीं चलती है। उत्कृष्ट काल
कोरिसपसास्साई पनासं हंति उयहिनामाणं । दो पुखकोडिळणा नाणाजीवेहि उक्कोस्सं ।। २३८।।