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जीवसमास जन्म-मरण होने से इसमे अन्तर (विरह) काल नहीं होता।
इनमे प्रतिसमय अनन्त वनस्पतिकायिक जीव और असंख्यात अन्य कायिक जीव जन्म-मरण करते है।
अलकाय
आवलिपअसंखेज्जाभागोऽसंखेमरासि उववाओ।
संखियसमये संखेजमाण अलेष सिद्धाणं ।। २४८।। गाथार्थ-वर्गों के जिन जीवों का परिमाण असंख्यात है उनका निरन्तर जन्म (उपपात) आवॉलका के असंख्यात भाग में जितने समय होते हैं उतने समय तक जानना चाहिए। जिन वर्गों के जीवों की संख्या संख्यात है उनका निरन्तर जन्म संख्यात समय तक और सिद्धों का निरन्तर उपपात आठ समय का जानना चाहिये। उसके पश्चात् अन्तराल अवश्य होता है।
विवेचन-एकेन्द्रिय का विवेचन पूर्ण हुआ, उसी क्रम में अब त्रसकाय का विवेचन किया जाता है। यहाँ मूल (गाथा) में त्रस शब्द न आने पर भी बुद्धि से उसका ग्रहण कर लेना चाहिये।
असंख्यात-जिसवर्ग (राशि) में जीवों की मात्रा असंख्यात होती है वे जीव असंख्यात राशि वाले कहलाते हैं।
वे राशियाँ अर्थात् वर्ग इस प्रकार हैं-१. द्वीन्द्रिय २. जीन्द्रिय ३. चतुरिन्द्रिय ४. पंचेन्द्रिय तिर्यश्च ५. संमूर्छिम मनुष्य ६. अप्रतिष्ठान नरकावास के नारक जीवों के अतिरिक्त शेष सभी नारक तथा ७. सर्वार्थसिद्ध विमान के देवों के अतिरिक्त शेष सभी देव।
इन स समुदाय रूप सातों राशियों अर्थात् वर्गों के जीव सातों ही राशियों में जन्म-मरण, च्यवन और उपपात करते रहते हैं।
प्रश्न- यह निरन्तर उत्पत्ति कब तक होती है?
उतर-उत्कृष्ट से यह निरन्तर उत्पत्ति आवलिका के असंख्यातवें भाग जितने समय-परिमाण तक होती है। उसके बाद अन्तराल होता है द्वीन्द्रिय, प्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय, प्रत्येक का यह अन्तराल जघन्य से एक समय का तथा उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त परिमाण आगम में कहा गया है। (प्रज्ञापना-सूत्र ५८१-५८३)
संख्यात- १. गर्भज मनुष्य २. अप्रतिष्ठान नरक के नारकी तथा ३. सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देव-इन तीनों ही वर्गों अर्थात् राशियों में प्रत्येक में संख्यात जीव होने से तीनों राशियों में प्रत्येक में उपपात (जन्म) तथा मरण (च्यवन) संख्यात समय तक सतत् होता है, उसके बाद अन्तर (विरह) पड़ना सम्भव है।