Book Title: Jivsamas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 252
________________ अन्तर-द्वार १९९ गर्भज से सम्मूच्छिम, पर्याप्त कहने से अपर्याप्त तथा संख्यात आयुवाले कहने से असंख्यात आयु वाले युगलिकों का स्वतः निषेध हो गया है। शेषनारक तथा देव की उत्पत्ति पंचेन्द्रियतिरियनरे सुरनेरङ्गयाय सेसच्या जंति । अह पुढविउदय हरिए ईसाणंता सुरा जंति ।। २४६ ।। गाथार्थ - शेष देव तथा नारकी जीव पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च तथा मनुष्य गति में जन्म ले सकते हैं। ईशान देवलोक तक के देव पृथ्वीकाय, अपूकाय तथा वनस्पति काय में भी जन्म ले सकते हैं। विवेचन – आनत-प्राणत आदि के ऊपर वाले देवों को छोड़कर शेष अर्थात् भवनपति, व्यन्तर एवं ज्योतिष्क देव तथा वैमानिक देवों में सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, बह्यलोक, लान्तक, महाशुक्र तथा सहस्त्रार देवलोक के देव तिर्यच तथा मनुष्य दोनों गतियों में जाते हैं। नारक — सातवीं तमः तमप्रभा नरक को छोड़कर शेष छह नरक के नारकी तिर्य तथा मनुष्य दोनों गति में जन्म ले सकते हैं। (सातवीं नरक के जीव मात्र तिर्यञ्च में ही जाते हैं) भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक में सौधर्म तथा ईशान देवलोक के देव पृथ्वीकाय, अप्काय तथा वनस्पतिकाय में जन्म ले सकते हैं। इससे ऊपर के छह देवलोकों के देव अर्थात् सहस्रार देवलोक तक देव, तियंच या मनुष्य गति में जन्म ले सकते है, किन्तु एकेन्द्रिय में नहीं। आठवें देवलोक से ऊपर वाले तो मात्र मनुष्य गति में ही जन्म लेते हैं, अन्य में नहीं । २. अन्तर अभाव- काल एकेन्द्रिय चयणुदवाओ एगिंदियाण अविरहियमेव अणुसमयं । हरियाणंता लोगा सेसा काथा असंखेज्जा ।। २४७।। गाथार्थ एकेन्द्रिय जीव का च्यवन (मृत्यु) तथा उपपात (जन्म), अविरहित ( निरन्तर ) रूप से प्रत्येक समय होता रहता है। उसमें भी प्रत्येक समय में अनन्त वनस्पतिकायिक जीव तथा असंख्यात शेष सभी कायों के जीव मरते हैं तथा उत्पन्न होते हैं। विवेचन व्यवन अर्थात् मरण । उपपात अर्थात् जन्म। एकेन्द्रिय जीवों का जन्म और मरण निरन्तर अर्थात् प्रति समय होता रहता है। निरन्तर इनका

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