Book Title: Jivsamas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 241
________________ १८८ जीवसमास के तीन प्रकार हैं। इनमें मति-अज्ञान एवं श्रुत-अज्ञान अभव्य जीव को अनादि-अनन्त काल तक रहता है किन्तु मिथ्यादृष्टि भव्य को अनादि-सान्त काल पर्यन्त रहता है सम्यक्त्व से पतित को जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टत: अपार्ध पुद्गलपरावर्तन काल तक रहता है। विभङ्गज्ञान की स्थिति तो सूत्रकार ने गाथा में भी स्पष्ट की है। किसी मनुष्य मा तिर्यञ्च को विभाज्ञान हुआ हो तो वह देशोन पर्वकोटि वर्ष तक रहता है। फिर मरकर यदि वह सातवीं नरक पृथ्वी में जाये तो तैतीस सागरोपम तक विमङ्गज्ञान रहता है। इस प्रकार दो भवों के सातत्य से विभङ्गज्ञान की स्थिति देशोन पूर्वकोटि वर्ष से अधिक तैतीस सागरोपम की होती है। जघन्य से तो इसका काल समय जानना चाहिये। प्रज्ञापना (सूत्र १३५३) में यह पूछा गया है कि हे भगवन्! विभङ्गशान कितने काल तक रहता है? हे गौतम ! न्यूनतम एक समय तथा अधिकतम देशोन पूर्वकोटि अधिक तैंतीस सागरोपम पर्यन्त विभङ्गशान रहता है। वक्षवर्शन-गाथा में चक्षुदर्शन का काल दो हजार सागरोपम कहा है परन्तु इतना काल उचित नहीं लगता। प्रज्ञापना (सूत्र १३५४) मे यह प्रश्न किया गया है कि हे भगवन् ! चक्षुदर्शन कितने काल तक रहता है? हे गौतम ! चक्षु-दर्शन न्यूनतम अन्नहर्त तथा अधिकता बल अधिक ा मागोगम तक रहता है। आगम में चतुरिन्द्रिय की कायस्थिति संख्यात वर्ष तथा पश्चेन्द्रिय की साधिक एक हजार सागरोपम मानी गई है। चतुरिन्द्रिय तथा पश्चेन्द्रिय को छोड़कर अन्य किसी को चक्षुदर्शन होता भी नहीं। अतः आगम कथित काल ही उपयुक्त लगता है। इस ग्रन्थ में चक्षुदर्शन का काल दो हजार सागरोपम कहा गया है, वह उचित नहीं लगता। शेष तथ्य केवली गम्य है। अचक्षुदर्शन - अचक्षुदर्शन का काल इस ग्रन्थ में तीन प्रकार का बताया गया है - १. अनादि-अनन्त, २. अनादि-सान्त और ३. सादि-सान्त जबकि प्रज्ञापना (सूत्र १३५५) में दो प्रकार का ही बताया गया है। हे गौतम ! अचक्षुदर्शन दो प्रकार का कहा गया है-- अनादि-अनन्त तथा अनादि-सान्त। जबकि जीवसमास के कर्ता ने अचक्षुदर्शन को सादि-सान्त भी बताया है। अनादि-अनन्त- अभव्य जीवों में स्पशेन्द्रिय तो सर्वकाल में होती है। अत: उनसे स्पर्शेन्द्रिय की अपेक्षा अचक्षुदर्शन लब्धि के रूप में अनादि-अनन्त काल पर्यन्त रहता है। अनादि-सान्त-- भव्यजीवों की अपेक्षा से अचक्षुदर्शन अनादि-सान्त है। भव्य जीवों में स्पशेन्द्रिय के अपेक्षा से अचक्षुदर्शन लब्धि अनादि काल से है, परन्तु केवल ज्ञान प्राप्त होने के बाद अचक्षुदर्शन का अन्त होने से उनका अचक्षुदर्शन अनादि-सान्त है।

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