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जीक्समास गाथार्थ- योग, उपयोग, कषाय और लेश्या का उत्कृष्ट स्थितिकाल अन्तर्मुहूर्त जितना है। पुनः देवों तथा नारकों में भवाश्रित लेश्या का काल भव स्थिति तुल्य होता है।
विवेचन- योग अर्थात् मन, वचन तथा काय। जब व्यक्ति शान्त स्थिति में बैठा रहता है उस समय भी उसका मन सक्रिय रहता है। मन के सक्रिय रहने से जीव मनोयोग प्रधान होता है, कि त बोल जाता है। गहचानयोग प्रमान स्थिति है तथा खड़े होकर चलना, दौड़ना यह काययोग प्रधान स्थिति है। तीनों योगों में से एक समय में एक योग प्रबल एवं प्रधान रहता है शेष योग गौण रहते हैं। इन योगों का काल अन्तर्मुहूर्त में बदल जाता है। यह बात स्थूल रूप से गम्य नहीं है, किन्तु पर्याय परिवर्तन के साथ-साथ इनमें भी परिवर्तन होता रहता है।
कराय- क्रोध, मान, माया तथा लोभ की उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त जितनी है। यद्यपि क्रोध आदि सत्ता में तो विद्यमान हैं, परन्तु उनमें उपयोग की अपेक्षा से इनका काल अन्तर्मुहूर्त है।
हे भगवन्! क्रोध कषाय का काल कितना होता है?
हे गौतम! जघन्य तथा उत्कृष्ट दोनों अपेक्षाओं से अन्तर्मुहूर्त जितना ही होता है। इसी प्रकार मान, माया तथा लोभ का काल भी न्यूनतम एक समय तथा अधिकतम अन्तर्मुहूर्त ही है।
लेश्या-लेश्या में भी भाव-लेश्या का काल जघन्य तथा उत्कृष्ट दोनों अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त होता है। परन्तु द्रव्य लेश्या तो भवस्थिति तुल्य जानना चाहिये। देव तथा नारक में लेश्या की स्थिति भव स्थिति तुल्य बताई गयी है वह द्रव्य-लेश्या की अपेक्षा से जानना चाहिये। भाव-लेश्या तो सभी जीवों की प्रतिसमय परिवर्तित होती रहती है। मति आदि पाँच ज्ञानों की काल-मर्यादा
छावहिउयहिनामा साहिया महसुओहिनाणाणं ।
अणा म पुष्चकोडी मणसम इयछेयपरिहारे ।। २३२।। गाथार्थ- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान तथा अवधिज्ञान का काल माधिक छियासठ (६६) सागरोपम है। मन; पर्ययज्ञान, सामायिक चारित्र, छेदोपस्थापनीय चारित्र तथा परिहारविशुद्धि चारित्र का काल देशोन (कुछ कम) पूर्वकोटि वर्ष है।
विवेचन-तीन ज्ञान-कोई जीव सम्यग्दर्शन सहित दो बार विजय देवलोक में या तीन बार अच्युत देवलोक में तथा कुछ समय मनुष्य भव में रहने से छियासठ