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काल- द्वार
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सागरोपम तक तीन ज्ञान युक्त हो सकता है। अनेक जीवों की अपेक्षा से तो नीन ज्ञान सर्वदा सम्भव है।
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मन:पर्ययज्ञान – यदि कोई जीव चारित्र लेते ही मन:पर्ययज्ञान प्राप्त कर ले और उसकी शेष आयु पूर्वकोटि वर्ष हो तो उसमें से गर्भकाल तथा आठ वर्ष निकाल देने पर मन:पर्ययज्ञान का उत्कृष्ट काल कुछ कम कोटि वर्ष पूर्व का होता है। जघन्य से मन:पर्ययज्ञान एक समय का हैं। भवान्तर में अर्थात् देवादिगतियों में मन:पर्ययज्ञान का अभाव हैं। केवल ज्ञान का काल सादि अनन्त माना गया है, क्योंकि यह ज्ञान प्राप्त होने पर जाता नहीं हैं।
सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय चारित्र- इन दोनों चारित्र का काल भी मन:पर्ययज्ञानवत् समझना चाहिए। कारण, कोई भी जीव जब चारित्र ग्रहण करता हैं तब उसकी उम्र आठ वर्ष को होनी अपेक्षित हैं। अतः पूर्वकोटि वर्ष मे से आठ वर्ष कम इन दोनों चारित्रों का काल समझना चाहिए।
परिहारविशुद्धि चारित्र - इस चारित्र को स्वीकार करने वाला आठ वर्ष की वय में दीक्षा लेने और उसके पश्चात् बीस वर्ष की दीक्षा पर्याय होने के बाद ही दृष्टिवाद पढ़ने का अधिकारी बनता है, क्योंकि बीस वर्ष की दीक्षा पर्याय से पूर्व दृष्टिवाद पढ़ने का निषेध हैं। उसके बाद अठारह मास तक अविच्छिन्न रूप से उसका अध्ययन करता है। इस प्रकार वह उन्तीस (२९) वर्ष और ६ माह कम पूर्वकोटि वर्ष तक परिहारविशुद्धि चारित्र का पालन कर सकता है।
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सूक्ष्मसम्पराय चारित्र – इसका काल जघन्य से एक समय तथा उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त काल है।
अथाख्यात चारित्र – यह चारित्र जघन्य से एक समय तथा उत्कृष्ट से देशोन पूर्व कोटि वर्ष की स्थिति वाला जानना चाहिये। (केवलज्ञान की स्थिति सादि - अनन्त काल है ) ।
विभङ्गज्ञानादि का काल
विजयंगस्स भवङ्गि वक्खुस्सुदहीण वे सहस्साइं ।
नाई अपज्जवसिओ सपज्जवसिओ सिय अवक्खू ।। २३३ ।।
गाथार्थ - विभङ्गज्ञान का काल भवायु तुल्य होता है। चक्षुदर्शन का काल दो हजार सागरोपम है। अचक्षुदर्शन तीन प्रकार का है— अनादि अपर्यवसित (अनन्त), अनादि सपर्यवसित (सांत) तथा सादि - सान्त |
विवेचन - पूर्व गाथा में पाँच ज्ञानों का काल बताया गया था। अब तीन अज्ञान का काल बताते हैं। मति अज्ञान, श्रुत- अज्ञान तथा विभङ्गज्ञान- ये अज्ञान