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कान-द्रार
वैक्रिय काययोग- मन और वचनयोग से रहित मात्र वैक्रिय काययोग लब्धिधारी वायुकाय को होता है देव आदि को नहीं होता, क्योकि उनको मन-वचन योग होता है। वायुकाय को भी उत्कृष्ट से बैंक्रिय काययोग अन्तर्मुहूर्त तक ही होता है।
आहारक कापयोग- यह काययोग तां चौदह पूर्वधारी को ही होता है और वह भी अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही रहता है।
मनोयोग एवं वनयोग-इन दोनों का काल भी अन्तर्मुहूर्त जितना है। इस प्रकार यहाँ योग का उत्कृष्ट काल बताया गया है।
काययोग का तथा उसमें भी औदारिक तथा आहारक काययोग का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है।
वैनिय काययोग, कार्मण काययोग, मनोयोग तथा वचनयोग- इन सभी का जघन्य काल एक समय का है। सीवेद तथा पुरुषवेद का उत्कृष्ट काल
देवी पणपण्णाऊ हत्यितं पल्लसयपुततं तु।
पुरिस सपिणतं च सपा व उपहीणं ।। २३०।।
गाथार्च-एक भव की अपेक्षा खीत्व का (काल अधिकतम)पचपन पल्योपम होता है यह काल देवियों की अपेक्षा से है किन्तु अनेक भवों की अपेक्षा से)खीत्व का(अधिकतम)काल शत पृथक्त्व सौ पल्योपम का होता है। पुरुषत्व और संज्ञीत्व का (अधिकतम) काल शतपृथक्त्व सागरोपम का होता है।
विवेचन-एक भव की अपेक्षा से दूसरे देवलोक की अपरिगृहीता देवी का, स्त्रीत्व का उत्कृष्ट काल पचपन पल्योपम का होता है।
अनेक भवों की अपेक्षा से निरन्तर स्त्रीवेद प्राप्त करने पर इस की उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व सौ पल्योपम है।
अनेक भव की अपेक्षा से पुरुषवेद की उत्कृष्ट स्थिति शतपृथक्त्य सागरोपम से कुछ अधिक है तथा जघन्य से तो इन सभी का काल अन्तर्मुहूर्त ही है। संजीव की उत्कृष्ट स्थिति भी पुरुषवेद के समान ही समझना चाहिए। लेश्यादि का काल
अंतमहत्तं तु परा जोगुवओगा कसाय लेसा य। सुरनारएस प पुणो भवद्विई होड़ लेसाणं ।। २३१।।