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काल-द्वार
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पहले असंख्यात वर्ष आयु वाले मनुष्य का आयु बांधकर क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर देवकुरु आदि में तीन पल्योपम की आयु वाला मनुष्य बनता है तब उसके सम्यक्त्व की स्थिति भी तीन पल्योपम काल जितनी होती है। यह चर्चा क्षायिक सम्पदा की अपेक्षा से की गई है।
क्षयोपशामिक सम्यक्त्व -इसका काल इतना नहीं है। इसका कारण यह है कि पूर्वभव में असंख्य वर्ष की आयु बांधने वाले मनुष्यों एवं तिर्यचों को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व वाला जीव मरकर वैमानिक देवलोक में जाता है। यह सम्यक्त्व तद्भव में तो पर्याप्तावस्था में ही होता है, अपर्याप्तावस्था में नहीं होने से इसका काल भव स्थिति से कुछ कम कहा गया है।
एकेन्द्रियादि- एकेन्द्रिय में सम्यक्त्व का अभाव है। कहीं-कहीं अपर्याप्तावस्था में एकेन्द्रिय को भी सम्यक्त्वी कहा है परन्तु इस अवस्था का काल अत्यल्प होने से यहाँ उसकी विचारणा नहीं की गई है। मनुष्य में सास्वादन तथा मित्रगुणस्थान
सासापणमिस्साणं गाणाजीवे पाच्छ मणुएस ।
अंतोमुक्तमुक्कोसकालमवरं जहुषिष्ठं ।। २२८।। गामार्थ- अनेक जीवों की अपेक्षा से मनुष्यों में सास्वादन तथा मिश्र गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त होता है। जघन्य काल तो जैसा पूर्व में कहा गया है वैसा ही जानना चाहिये।
विवेचन- अनेक जीवों की अपेक्षा से सास्वादन तथा मिश्र (सम्यक् मिथ्या-दृष्टि) गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा गया है, वह किस प्रकार? सास्वादनी और मिश्रदृष्टि सतत् होते रहते हैं। फिर भी दोनों का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा गया है क्योंकि उसके बाद अवश्य अन्तराल पड़ता है।
प्रश्न- यह तो अनेक जीवों की अपेक्षा से उत्कृष्ट स्थिति बताई गई है परन्तु एक जीव की अपेक्षा से उनका जघन्य और उत्कृष्ट काल कितना है?
उत्तर--- इस गाथा में अनेक जीवों की अपेक्षा से उनका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा गया है जघन्य स्थिति तो गाथा २२० के अनुसार एक समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त सक जानना चाहिए।
एक जीव की अपेक्षा से इन दोनों गुणस्थान की काल-मर्यादा गाथा २२१ के अनुसार ही समझना चाहिये।