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जीवसमास
भी इसी मत की पुष्टि करता है। जीवकाण्ड की ७२९वीं गाथा में भी यही बात कही गयी हैं।
कई आचार्य उपशम सम्यक्त्व को अपर्याप्तावस्था में नहीं मानते, उनके भत से पर्याप्त जीव हो उपशम सम्यक्त्व के अधिकारी हैं।
जीवविजय जी ने अपने टब्बे में इस प्रकार लिखा है कि जो जीव उपशम श्रेणी की पाकर ग्यारहवें गुणस्थान में मरते हैं. वे सर्वार्थसिद्धि विमान में क्षायिक सम्यक्त्व सहित पैदा होते हैं और लवसप्तक कहलाते हैं।
कमस्वाद से आस्थिति पात
(सारे चार किम
होने से उन्हें देव का जन्म ग्रहण करना पड़ता है। यदि उन्हें सात लव और मिल जाते तो वे क्षायिक श्रेणी मांडकर, केवलज्ञान को प्राप्तकर मोक्षलक्ष्मी का वरण कर लेते।
तिर्यञ्च तथा मनुष्य गति में सम्यक्त्व की काल मर्यादा
मिच्छाणं कायठिई उक्कोस भवष्ठिई य सम्मानं । तिरियनरेगिंदियमाइएस एवं विभङ्गदव्या ।। २२७।।
गाथार्थ - तिर्यञ्च तथा मनुष्य में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति उनकी कार्यस्थिति के समतुल्य हो सकती हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यच एवं मनुष्यों में सम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति भी भवस्थिति के समरूप हो सकती हैं। एकेन्द्रिय आदि में स्वयं ही इसकी विचारणा कर लेनी चाहिये।
विवेचन – तिर्यों तथा मनुष्यों में मिध्यात्व को उत्कृष्ट काल स्थिति उनकी काय स्थिति के समान जानना चाहिये।
तिर्यञ्च जब तक तिर्यञ्च भाव को नहीं छोड़ते तब तक उसी काय में रहते । आगम में उनका यह काल असंख्य पुद्गल परावर्तन जितना कहा गया है।
हैं।
मनुष्य भी सामान्यतः आठ भवो मे पूर्वकोटिपृथक्त्व (२ से ९ करोड़ तक ) साधिक तीन पल्योपम की कायस्थिति वाले हैं। मनुष्य का मिथ्यात्व काल भी कायस्थिति के समान माना गया है। इसी प्रकार तिर्यञ्चों तथा मनुष्यो में स्वम्यक्त्व का काल भवस्थिति के समान बताया गया है तथा भवस्थिति का काल तीन पत्योपम जितना है।
जब कर्मभूमि का मनुष्य असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यच की आयु बांधकर दर्शन सप्तक का क्षय करके तथा क्षायिक समकित प्राप्त करके देवकुरु, उत्तरकुरु में तीन पल्योपम आयु वाले तिर्यञ्च के रूप में उत्पन्न होता है। तब उसका क्षायिक सम्यक्त्व तीन पल्योपम स्थिति वाला होता है। जब कर्मभूमि का मनुष्य