Book Title: Jivsamas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 233
________________ १८० जीवसमास ३. सयोगीकेवली अवस्था प्राप्त कर तुरन्त मोक्ष प्राप्त करने पर- इन तीनों स्थितियों में इन तीनों गुणस्थानों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त परिमाण कहा गया है। सम्पूर्ण क्षपक श्रेणी का काल भी अन्तर्मुहूर्त परिमाण है। अयोगी केवली का काल पाँच हस्वाक्षर परिमाण होने से इसका भी एक जीव की अपेक्षा से या अनेक जीवों की अपेक्षा से उत्कृष्ट एवं जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त परिमाण है। क्षीणमोहगुणस्थान का काल भी अन्तर्मुहर्त परिमाण है, उसके बाद वह केवलज्ञान प्राप्त कर ही लेता है। एक जीव की अपेक्षा से एवं अनेक जीवों की अपेक्षा से इसका जघन्य एवं उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त परिमाण ही है, क्योकि उसके बाद निश्चय हो अन्तराल पड़ता है। अब प्रमतसंयत आदि गुणस्थानों की चर्चा करेंगेप्रमत्तसंपतादि गुणस्थान एगं पमत इयरे उमए उवसामगा य उपसंता। एग समपं जा भिन्नमुहुसं उक्कोसं ।। २२५।। गाथार्थ-प्रमत्तसंयत तथा अप्रमतसंयत का एक जीव की अपेक्षा से तथा उपशामक तथा उपशान्तमोही का एक तथा अनेक जीवों की अपेक्षा से जघन्य काल एक समय तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त परिमाण है। विवेचन-एक जीव की अपेक्षा से प्रमत्तसंयत तथा अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों का जघन्य काल एक समय तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। उसके बाद प्रमत्तसंयमी अप्रमत्त भाव को तथा अप्रमत्तसंयमी प्रमत्त भाव को अवश्य प्राप्त करता है या फिर मरण को प्राप्त करता है। मोहनीयकर्म का उपशमन करने वाला उपशामक कहलाता है। वह उपशम श्रेणी में हो तो अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसम्पराय एवं सूक्ष्मसम्पराय नामक गुणस्थान का स्पर्श करता है। ग्यारहवें उपशान्तमोह गणस्थान में पहुंचने पर उसे उपशान्तमोही कहा जाता है.-- इसे छयस्थ वीतराग भी कहते हैं। इन गणस्थानों का एक जीव की अपेक्षा से या अनेक जीवों की अपेक्षा से जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि उसके बाद या तो गिर कर अन्य गुणस्थान को प्राप्त करेगा या मरण होने पर अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने से अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान को प्राप्त करेगा। परक तथा देवों में सम्ममय की काल मर्यादा मिच्छा भवडिया सम्म देसूणमेव उसकोस । अंतोमुतमवरा नरएस समा य देवेस ।। २२।।

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