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जीवसमास
गाथार्थ - मिथ्यात्व गुणस्थान अनादि अपर्यवसित (अनन्त) अनादि स्वपर्यवसित ( सान्त) तथा सादि सपर्यवसित ऐसे तीन प्रकार का होता है। इनमे सादि सपर्यवसित अन्तर्मुहूर्त से लेकर अर्धपुद्गलपरावर्तन काल तक रहता है।
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विवेचन – सम्यक्त्व को आवरित करने वाले पुद्गलों के कारण से प्राप्त विपरीतरुचि को मिथ्यात्व कहा गया है। इसके तीन हो भंग बनते हैं
१. अनादि अनंत- अभव्य जीत्रों में मिध्यात्व गुणस्थान का काल अनादि-: द- अनन्त है।
२. अनादि सांत - भव्य जीवो की अपेक्षा से मिथ्यात्व का काल अनादिसांत है, क्योकि सम्यक्त्व होते ही मिथ्यात्व का अन्त हो जाता है।
३. सति जो कम सम्पत्वको स्याग कर पुनः मिथ्यात्व को प्राप्त करें, उनकी अपेक्षा से मिध्यात्व काल सादि और सांत है। सादि- सान्त मिध्यात्वगुणस्थान जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तक तथा उत्कृष्टतः अर्धपुद्गलपरावर्तन काल पर्यन्त हो सकता है क्योंकि एक बार सम्यक्त्व प्राप्त कर लेने पर पुनः मिध्यात्व में जाकर भी जीव अधिकतम अर्धपुद्गल परावर्तन काल मे पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त कर मोक्ष का अधिकारी बन जाता है।
४. सादि- अनन्त - सादि- अनन्त नामक मिथ्यात्र का चतुर्थ भंग सम्भव नहीं हैं। सम्यक्त्व को प्राप्त कर पुनः मिथ्यात्व को प्राप्त करना सादि मिध्यात्त हैं। किन्तु जिसे एक बार सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गयी वह तो निश्चित रूप से (कभी न कभी) मोक्ष जरूर प्राप्त करता है अर्थात् उसके मिथ्यात्व का अन्त अवश्य होता हैं। । अतः वह 'अनन्त' नहीं होता है। अतः सादि- अनन्त नामक चतुर्थ भंग नहीं बनेगा।
प्रज्ञापना (सूत्र ३४५) में भी मिध्यादृष्टि जीवों का त्रिविध वर्गीकरण किया गया है, जो इस प्रकार है- १. अनादि अनन्त (अपर्यवसित) — जो अनादि काल से मिध्यादृष्टि हैं तथा अनन्तकाल तक मिथ्यादृष्टि बने रहेंगे, ऐसे अमव्य जीव । २. अनादि- सान्त (सपर्यवसित) जो अनादि काल से मिथ्यादृष्टि था किन्तु वर्तमान में जिसने मिथ्यात्व का अन्त कर दिया ऐसा भव्यजीव । ३. सादि सान्त- जो सम्यक्त्व प्राप्त कर मिथ्यादृष्टि हो गया था, परन्तु पुनः सम्यग्दर्शन प्राप्त कर जिसने मिध्यात्व का अन्त कर दिया।
केवली
अब एक जीव की अपेक्षा अविरतसम्यग्दृष्टि देशविरत तथा सयोगी इन तीन गुणस्थानों के काल का विचार करेंगे ।
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