Book Title: Jivsamas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 227
________________ १७४ जीवसमास सूक्ष्म नामकर्म के उदय वाले पृथ्वीकाय आदि के द्वारा बार-बार काय में जन्म-मरण करने के कारण उनकी कास्थिति क्षेत्र अपेक्षा से असंख्यात लोक परिमाण है। __ प्रज्ञापनासूत्र (सूत्र १३०० ) में पूछा गया है- हे भगवन् ! सूक्ष्म जीव कितने काल तक सूक्ष्म रूप मे रहता है? हे गौतम ! जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टत: असंख्यात उत्सर्पिणी-अवमर्पिणी तक तथा क्षेत्र से असंख्यात लोक तक सूक्ष्मजीव सृक्ष्मपर्याय में बना रहता है। ___ पाँची सक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों तथा बादर पृथ्वी काय आदि चार कायों की कायस्थिति बताइ अब स्थूल (बादर) वनस्पति की काय-स्थिति बताते हैं। प्रज्ञापना (सूत्र १३०८) में पूछा गया है कि- हे भगवन् ! बादर वनस्पतिकाय बादर रूप में कब तक होती है? हे गौतम ! जघन्यत: अन्तर्मुहर्त तथा उत्कृष्टत: असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी तक तथा क्षेत्र से अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र जानना चाहिए। विकलेन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय की कास्थिति वापरपजसाणं वियलसपज्जतइंदियाणं च । उक्कोसा काठिा वाससाहस्सा उ संखेमा ।। २१६ ।। गाथार्थ-बादर पर्याप्त विकलेन्द्रिय तथा पर्याप्त पभेन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट कास्थिति संख्यातसहस्रवर्ष जानना चाहिये। विवेचन- बादर पर्याप्त विकलेन्द्रिय जीवों एवं पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट कायस्थिति संख्यातसहस्रवर्ष की है। सामान्यत: बादर पर्याप्त जीवों की बादर पर्याप्त में पुन:- पुनः जन्म होने से उनकी उत्कृष्ट कायस्थिति साधिक शत सागरोपम पृथक्त्व परिपाण है। प्रज्ञापना (सूत्र १३२०) में पूछा गया है कि हे भगवन् ! बादर सकायिक पर्याप्त, बादर त्रसकायिक पर्याप्त के रूप में कितने काल तक रह सकते हैं? हे गौतम! जघन्यत; अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टत: कुछ अधिक शतसागरोपम पृथक्त्व पर्यन्त बादर त्रसकायिक पर्याप्त के रूप में बने रह सकते हैं। विकलेन्द्रिय अर्थात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा चतरिन्द्रिय की उपरोक्त कायस्थिति आगमों के अनुसार है। जबकि कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी ग्रन्थोंआगमिकों में कहीं-कहीं मतभेद देखा जाता है। किन्तु यहाँ यह अन्तर मात्र शाब्दिक प्रश्न--- आगम में इनकी कायस्थिति कितनी कही गई है?

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