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काल-द्वार
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गाथार्थ वनस्पतिकाय तक के एकन्द्रिय जीव असंख्यात पगलपरावर्तन काल तक उसी काय में प सकते हैं। निगः के जीन शहाई पन्नात पानि तक स्वकाय में रहते हैं,क्षेत्र की अपेक्षा पृथ्वीकाय आदि असंख्यलाक तक स्वतंत्र में रहते हैं।
विवेचन- हरितान्त अर्थात् जिसके अन्त में हरितकाय, वनस्पतिकाय आती हैं, ऐसे पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय एवं वनस्पतिकाय अपनी स्वकाय में असंख्यात पुद्गल परावर्तन तक रहते है।
प्रज्ञापना में गौतम ने पूछा, हे प्रभु! एकन्द्रिय जीव मरकर एकेन्द्रिय में कितने काल तक पैदा हो सकते हैं?
हे गौतम ! जघन्य से एक अन्तरर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट से अनन्तकाल तक स्वकाय में उत्पन्न हो सकती हैं। काल की अपेक्षा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल तक स्वकाय में रह सकती है। क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्यात क्षेत्र परिमाण लोक में हो सकती हैं।
काल की अपेक्षा से निगोद जघन्य से अन्तर्मुहर्त तथा उत्कए से अनन्त उत्सर्पिणी काल तक तथा क्षेत्र की अपेक्षा से दाई पुद्गल परावर्तन काल तक स्वक्षेत्र में जन्म-मरण कर सकते हैं। पृथ्वीकाय स्वकाय में काल की अपेक्षा सं असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी तक तथा क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्यात लोकाकाश जिसने प्रदेश में रह सकते हैं। एकेन्द्रिय की कास्थिति
कम्पठिङ्गबायराणं सुहमा असंखया भवे लोगा।
अंगुलअसंखभागो बायरएगिदियतरूणं ।। २१५।।
गाथार्थ- बादर पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय तथा वायुकाय की कायस्थिति मोहनीय-कर्म जितनी अर्थात् सत्तर कोटा-कोटि सागरोपम है। सूक्ष्म पृथ्वीकाय आदि की असंख्यात लोक परिमाण स्थिति है। बादर एकेन्द्रिय वनस्पति की कायस्थिति अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण है।
विवेचन- कर्मस्थिति से यहाँ उत्कृष्ट कर्मस्थिति ली गई है। उत्कृष्ट कर्मस्थिति मोहनीयकर्म की है अत: यहाँ कर्मस्थिति से तात्पर्य मोहनीयकर्म की उत्कृष्ट स्थिति से है। इस प्रकार पृथ्वी आदि चारों कार्य को उत्कृष्ट कास्थिति सत्तर कोटा-कोटी सागरोपम हैं। प्रज्ञापना में सूत्र १३०६ में गौतम स्वामी ने प्रश्न किया है-हे भगवन् ! बादर पृ काय, बादर पृथ्वीकाय में कितने समय तक रह सकती है? हे गौतम| जघन्य से अंतर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट से सत्तर कोटा-कोटी सागरोपम काल तक। इसी प्रकार अपकाय, तेजस्काय तथा वायुकाय की कायस्थिति भी जाननी चाहिए।