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जीवसमास जीव आपत्र होने के स्त
मापदेशों का दण्ड कप में स्थापित करके समस्त लोक में फैलाता है। क्षेत्र तथा स्पर्शन
सट्ठाणसमुग्धाएणुववाएणं च जे जहिं भावा ।
संपड़ काले खेत्तं तु फासणा होइ समईए ।।१८१।।
गाथार्थ-स्वस्थान, समुद्घात तथा उपपात की अपेक्षा में जो अवस्था जहाँ होती है वह उसका वर्तमान काल विषयक स्थान क्षेत्र कहलाता है, किन्तु भूत्काल विषयक स्थान 'स्पर्शना' कहलाता है।
विवेचन-जीव जहाँ उत्पन्न होता है वह उसका स्वस्थान है। कषाय मरण आदि सात समुद्घात है। एक भव से दूसरे भठ में जाना उपपान है।
ये तीनों ही यदि वर्तमान काल विषयक हैं तो उन्हें क्षेत्र के अन्तर्गत लेना ताना ये तीनों ही यदि भूतकाल विषयक हो तो उन्हें स्पर्शना के अन्तर्गत लेना चाहिये।
क्षेत्र- इसमें कल्पना करे कि जैसे विग्रहगति की अवस्था में स्वयं के आत्मप्रदेशो से समस्त लोक रूप क्षेत्र को सर्व ओर से स्पर्श (अक्रान्त) करने के कारण बादर अपर्याप्त एकेन्द्रिय का वह क्षेत्र है। यह वर्तमान काल से सम्बन्धित बात हुई :
स्पर्शना-जैसे कोई जीव छठे नरक से मध्यलोक, मनुष्य लोक में आकर उत्पन्न हुआ। यहाँ उसने पर्याप्त अवस्था को प्राप्त कर लिया- अब मनुष्य भव में रहते हुएं उसने जो छठे नरक का त्याग भृतकान में किया था वह उसकी स्पर्शना है। क्योकि निकट भृतकान मे उसने छ; रज्जु का स्पर्श किया था। अजीव द्रव्य
लोए थम्माऽथम्मा लोपालोए य होइ आगासं । कालो माणुसलोए उ पोग्गला सबलोमि ।। १८२।।
गाथा-लोक में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय है। आकाशास्तिकाय लोक तथा अलोक में है। काल मनुष्य लोक में होता है तथा पुद्गल सर्वलोक में है।
विवेचन- पाँचों द्रव्य लोकाकाश मे विद्यमान हैं पर आकाशस्तिकाय लोक तथा अलोक दोनों में है। ज्ञातव्य है कि वर्तना लक्षण निश्चयकाल तो सम्पूर्ण लोक में है परन्तु सूर्य, चन्द्रादि के कारण व्यवहारकाल मात्र मनुष्यलोक (अढाई द्वीप) में है।
तृतीय क्षेत्रद्वार समाप्त