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स्पर्शन्-द्वार
आगासं व अणंतं तस्स य बहुमझेदसभागम्मि । सुपद्वियसंढाणो लोगो कहिओ जिणवरोहिं ।। १८३।।
आकाश अनन्त है, उसके बिल्कुल मध्य में दसवं भाग में सुप्रतिष्ठित संस्थान वाला लोक है एसा जिनेश्रर देव ने कहा है।
आकाश के दो भेद हैं- अलोकाकाश और लोकानाश। लोकाकाश अलोकाकाश के ठीक मध्य में स्थित हैं। यह अकृत्रिम, अनादिनिधन स्वभाव से निर्मित और पञ्चास्तिकाय एवं छठे काल इन छ: द्रव्यों में व्याप्त है। इसे ही लोक संज्ञा दी गई है। इसका आकार सुनिश्चित हैं। लोकाकाश का आकार तथा विस्तार
हेहा मज्झे उपरि वेसासणझल्लरीमुइंगनिभो ।
मझिमवित्याराहियचोइसगुणगायओ लोओ ।। १८४।। गाथार्थ- अधोलोक, मध्यलोक तथा ऊर्ध्वलोक क्रमशः वेत्रासन, झल्लरी तथा मृदंग तुल्य है। माध्यम लोक के विस्तार की अपेक्षा से ये समस्त लोक चौदह गुणा आयत अर्थात् विस्तार वाला है।
विवेचन- इस गाथा में ऊर्ध्वलोक को मृदंग (ढोल), मध्यलोक को झल्लरी (वाय विशेष या थाली) तथा अधोलोक को वेत्रासन (गाय की गर्दन) के समान बताया गया है।
समस्त लोक का परिमाण चौदह गुण अर्थात् रज्जु है। इस गाथा में गुण का आशय रज्जु (रस्सी) से है। शास्त्रों में रज्जु का परिमाण इस प्रकार बताया गया है...
जोयणलखपमाणं निमेसमोण जाइ जो देवो ।
ता छम्मासे गमणं एवं रज्जु जिणा विति ।।
अर्थात कोई एक देव एक निमेष (आंख की पलक झपकने में लगने वाला काल) में एक लाख योजन दूरी पार करता है। इस प्रकार की तीव्र गति वाला देव छ: माह तक इसी गति से चलता रहे तो एक रज्जु होता है।