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जीवसमास
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१. वेदना समुद्घात
संवेदन के हेतु होने वाला समुदघात वेदना समुदूधात कहलाता है। यह असातावेदनीय कर्मों को लेकर होता हैं। जीव वेदना से आकुल व्याकुल होकर ( अनन्तानन्त असाता वेदनीय कर्म स्कन्धों से व्याप्त अपने ) आत्म- प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालता है। वे प्रदेश मुख्य, उदर आदि के छिद्रों में तथा कर्मस्कन्धादि के अन्तरालो में भरे रहते हैं और लम्बाई-चौड़ाई की अपेक्षा से शरीर परिमित क्षेत्र में व्याप्त होते हैं। जीव एक मुहूर्त तक इस अवस्था में ठहरता है। उस अन्तर्मुहूर्त में वह असातावेदनीय कर्म के प्रचुर मुद्गलों को उदीरणा से खींचकर, उदयावलिका में प्रविष्ट करके वेदता है और फिर उन्हें निर्जरित कर देता है। इस क्रिया का नाम वेदना समुद्घात है।
२. कषायं समुद्घात
क्रोधादि कषाय रूप मोहनीय कर्म आश्रित समुद्घात को कषाय समुद्घात कहते हैं। क्रोधादि तीव्र कषाय के उदय से ग्रस्त जीव जब अपने आत्म-प्रदेशी को बाहर फैलाकर तथा उनसे मुख, पेट, कर्ण आदि के छिद्रों तथा कर्मस्कन्धादि के अन्तरालों को भरकर परिमित क्षेत्र में व्याप्त होकर अन्तर्मुहूर्त तक रहता हैं, उस समय में प्रचुर कषाय- पुद्गलों की निर्जरा कर लेता है। यही क्रिया कषाय समुद्घात है।
३. मारणान्तिक समुद्घात
मरणकाल में अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर आयुष्यकर्म का समुद्घात मारणान्तिक समुदूघात कहलाता है। मृत्यु के समय कोई जीव अन्तर्मुहूर्त पूर्व स्वयं के शरीर परिमाण चौड़ाई जितने तथा जघन्य रूप से अंगुली के असंख्यातवें भाग जितने लम्बाई के और उत्कृष्ट रूप से असंख्यात योजन जितने स्वयं के आत्म-प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालता है। निकालने के बाद अगले भन में जहाँ उत्पन्न होना हैं वहाँ उस स्थान पर वह अपने आत्म-प्रदेशों को दण्ड रूप से फेंकता है। ऋजु गति से तो एक समय में ही उस स्थान तक दण्ड रूप बना लेता है और विग्रहगति से अधिकतम चार समय लगाता है। यह मारणांतिक समुद्घात अन्तर्मुहूर्त परिमाण ही है। इतने समय में जीव आयुकर्म के प्रभूत पुद्गलों को निर्जरित कर लेता है। इस क्रिया को मारणान्तिक समुद्घात कहते हैं,
४. वैक्रिय समुद्घात
वैक्रिय शरीर का निर्माण करने हेतु विक्रिया शक्ति के प्रयोग द्वारा वैक्रिय शरीरनामकर्म के आश्रित होने वाले समुद्घात को वैक्रिय-समुद्घात कहते हैं।