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जीवसमास
नीचे-नीचे ये पृथ्वियाँ विस्तार वाली जानना क्योंकि लोक अनुक्रम से विस्तार वाला है, किन्तु यह विस्तार लोक की अपेक्षा है, नारकीय जीवों के निवास क्षेत्र की अपेक्षा से नहीं है, क्योंकि नारकी जीवों का निवास क्षेत्र तो त्रसनाल ही हैं और उसका विस्तार तो मध्यलोक जितना ही है।
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आगम में भगवान् से प्रश्न किया हैं— हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी और शर्कराभा पृथ्वी का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है ?
उत्तर— हे गौतम! असंख्य हजार योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है।
प्रश्न- भगवन् ! शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है?
उत्तर
हे गौतम! यह भी पूर्ववत् ही हैं। इसे सप्तम पृथ्वी पर्यन्त ऐसा हो जानना चाहिये।
हे भगवन् ! सप्तम नरक और अलोक का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है ?
प्रश्न
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उत्तर- हे गौतम ! असंख्य हजार योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है।
गणितानुयोग १ / ८९ ।
इस प्रकार अधोलोक में स्पर्शनीय पदार्थों का निरूपण किया अब ऊर्ध्वलोक के स्वरूप का विवेचन करेंगे
ऊर्ध्वलोक
उ परसबुड्डी निहिता जाव गंभलोगोति ।
अठ्ठा खलु रज्जू तेण परं होड़ परिहाणी । । १९०॥
गाथार्थ - ऊर्ध्वलोक में ब्रह्म देवलोक तक साढ़े तीन रज्जु परिमाण क्षेत्र तक लोक के विस्तार में वृद्धि होती है, उसके बाद क्रमशः कमी होती जाती है।
विवेचन - मध्यलोक से ऊपर की ओर सौधर्म देवलोक से बह्म देवलोक तक के साढ़े तीन रज्जु क्षेत्र में लोक की चौड़ाई में वृद्धि होती जाती हैं तथा उसके बाद क्रमश: चौड़ाई में कमी होती जाती हैं।
नोट यहाँ चौड़ाई में वृद्धि एवं हानि की चर्चा लोक संस्थान की अपेक्षा से की गई है, न कि देवों के निवास क्षेत्र की अपेक्षा से। अग्रिम गाया में देवलोक की ऊँचाई की चर्चा की गई हैं।
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