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रा-मार यह असंख्यात वर्ग कल्पना से दस (१०) भी होते हैं (परन्तु इतने वर्ग कल्पित नहीं किये जा सकते कारण) इतने वर्गों से आवलिका सम्बन्धित घनपूर्ण सम्पूर्ण होना सम्भव है वह इस प्रमाण से- आवलिका में दस समय की कल्पना की थी। दस का घन (१०x१०x१०= घन अर्थात् उसी संख्या को उसी संख्या से तीन बार गुणा करने से १०००) एक हजार होता है (और बह हजार की संख्या दस वर्ग से होती है) अतः उसे ग्रहण करने से धन सम्पूर्ण होता है। इससे आठ या नौ आवलिका वर्गों की असंख्यात रूप से कल्पना करनी चाहिए। उस परिमाण की कल्पना से आठ सौ (८००) या नौ सौ (९००) अथवा वास्तविक रूप में असंख्यात बादर पर्याप्त तेजस्काय होते हैं। यह आवलिका के घन की मध्यमवृनि रूप होती है।
इस प्रकार एक आवलिका का वर्ग कुछ कम आवलिका के समयों की संख्या के साथ गुणा करने से जो संख्या आती है उत्तने परिमाण में बादर पर्याप्त तेजस्काय है।
पर्याप्त बादर वायुकाय के असंख्यात प्रतर होते हैं वह पूर्व मे कहे परिमाण लोक के संख्यातवें भाग में असंख्यात प्रतर जानना। जिससे लोक के संख्यातवें भाग में रहे असंख्यात प्रतर में जितने प्रदेश होते हैं उतनी संख्या परिमाण बादर पर्याप्त वायुकाय होते हैं।
एकेन्द्रिय का अल्पबहुत्त्व इस प्रकार है--- १. सबसे कम बादर तेजस्काय, उससे असंख्यात गुणा प्रत्येक वनस्पतिकाय, उससे असंख्यात गुणा पृथ्वीकाय, उससे असंख्यात गुणा अप्काय, उससे असंख्यात गुणा वायुकाय है।
प्रथमराशि बादर पर्याप्त की चर्चा पूर्ण हुई – अत्र शेष सात राशियों की चर्चा करते हैं।
सेसा तिण्णिवि रासी वीसु लोया भवे असंखेज्जा । साहारणा उ चउसुवि वीसु लोया भवेऽणता ।।१६२।।
गाथार्थ- शेष रही तीन राशियाँ सभी अलग-अलग संख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं और चार प्रकार की साधारण वनस्पतियाँ अलग-अलग अनन्त लोकाकाश प्रदेश परिमाण हैं।
विवेचन- एकेन्द्रिय प्रत्येक शरीर की चार राशियां होती है.-१, बादर पर्याप्त, २. बादर अपर्याप्त, ३, सूक्ष्म पर्याप्त तथा ४. सूक्ष्म अपर्याप्त। इन चार में से प्रथम बादर पर्याप्त राशि की चर्चा हमने की। अब शेष तीन राशियों भी अलग-अलग असंख्यात लोकाकाश जितनी है। असंख्यात लोकाकाश में जितने