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जीवसमास का निर्देश किया गया है, फिर भी अंगुल के असंख्यात भाग के असंख्य भेद होने से इनका अल्पबहुत्व देख लेना चाहिये। इस प्रकार बादर पर्याप्त प्रदेश वनस्पति से बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय असंख्यगुण: है।
पजसबायराणल असंखया हुंति आवलियवग्गा।
पज्जतवायुकाया भागो लोगस्स संखेज्जो ।।१६।।
गाभार्थ- पर्याप्त बादर अग्निकाय असंख्याती-आलिका के वर्ग परिमाण हैं। पर्याप्त बादर वायुकाय लोकाकाश के संख्यातवें भाग जितने आकाश-प्रदेश परिमाण में है।
विवेचन- बादर पर्याप्त अग्निकाय असंख्यात आवलिका के वर्ग परिमाण अर्थात् असंख्यात आवलिका का वर्ग करने पर जो संख्या बने- उस संख्या परिमाण है।
बादर पर्याप्त वायुकाय लोक के संख्यातवें भाग में है अर्थात् लोकाकाश के संख्यातवें भाग में जितने आकाश-प्रदेश हैं उलने परिमाण में सर्व बादर पर्याप्त वायुकाय होते हैं।
. असंख्यात आवलिका के वर्गों से आवलिका का धन होता है उससे अधिक या कम भी होता है, इससे असंख्यात आवलिका वर्ग इतने मात्र से बादर पर्याप्त अग्निकाय का परिमाण नहीं जान सकते तथा लोक में संख्यातवें भाग में भी कितने प्रतर होते हैं ये भी नहीं जान सकते, अत: दोनों का विशेष रूप से परिमाण कहते हैं -
आवलिवग्गाऽ संखा यणस्स अंतो उ बायरा सेऊ । यजत्तवापराणिल हवन्ति पपरा असंखेज्जा ।।१६१॥
गाथार्थ-बादर पर्याप्त अग्निकाय घर के अन्दर रहे असंख्यात आवलिका वर्गपरिमाण जानना चाहिये। उसी प्रकार बादर पर्याप्त वायुकाय के असंख्यात प्रतर होते हैं।
विवेचन-जो बादर पर्याप्त अग्निकाय पहली असंख्याती आवलिका के वर्ग परिमाण कही वह आवलिका वर्गघन के अन्दर (मध्य में) लेना, इसका अर्थ इस प्रकार है असंख्याती आवलिका के वर्ग इतने ही लेना जितने से आवलिका का घन पूरा न हो, वरन् अधूरा रहे। यही बात विशेष स्पष्ट करने हेतु असत् कल्पना से बताते हैं- असंख्यात समय रूप आपलिका में दस (१०) समय की कल्पना करते हैं उसका वर्ग करने से सौ (१००) होते हैं (वर्ग अर्थात् १० को १० से गुणित करना)।