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जीवसमास प्रदेश है इतने परिमाण में एक-एक गाँश होती है। इस प्रकार तीनों राशियों का प्रमाण सपान चलाने पर भी इनमें अन्तर है- १. प्रत्यक शरीर बादर अपर्याप्त एकेन्द्रिय से, २. प्रत्येक शरीर सूक्ष्म अपर्याप्त असंख्यात गुणा हैं। ३. उससे सूक्ष्म पर्याप्त संख्यात गुणा हैं।
साधारण शरीर वाले वनस्पत्ति एकेन्द्रिय, बादर पयांप्न, बादर अपर्याप्त, मृक्ष्म पर्याप्त तथा सूक्ष्म अपर्याप्त भिन्न-भिन्न है। ये अनन्त लोकाकाश परिमाण होने से अनन्त लोकाकाश प्रदेश श्रेणी परिमाण संख्या में हैं। इन चारों का अल्पबहुत्व इस प्रकार है- साधारण शरीर बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय से साधारण शरीर , बादर अपर्याप्त असंख्यात गुणा, उससे सूक्ष्म अपर्याप्त संख्यात गुणा, उससे सूक्ष्म पर्याप्त संख्यात गुणा होते है। वायुकाय में उत्तर वैक्रिय परिमाण
गयरवाल मग्गा भणिया अणुमायमनासरीता। पल्लासंखियभागेणऽवहीरंतित्ति सब्वेवि ।।१६३।।
गाथार्थ- पर्याप्त बादर वायूकाय में कितने ही वायकाय वाले प्रतिसमय उत्तर वैक्रिय शरीर वाले होते है। वे सभी पल्योपम के असंख्यातवें भाग का अपहरण करते है।
विवेचन-सूक्ष्म अपर्याप्तावस्था में उत्तर वैक्रिय शरीर की प्राप्ति सम्भव नहीं है। अत: बादर शब्द गाथाकार ने दिया है। पर्याप्त उपलक्षण से समझ लेना चाहिये। समस्त पर्याप्त बादर वायुकाय में सतत उत्तर वैक्रिय शरीर वाले वायुकाय के जीव भी होते हैं।
सभी पल्योपम के असंख्यातने भाग को अपहरण कर सकें अर्थात् प्रत्येक समय एक-एक प्रदेश का अपहार करते हुए जितने काल में क्षेत्र पल्यापम के असंख्यातवें भाग पूर्ण हों उतने काल में वैक्रिय शरीरी वायुकाय के जीव भी प्रत्येक समय में अपहरते (सर्व पूरे होते हैं।
क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश-प्रदेश हैं उतने क्रिय शरीरी बादर पर्याप्त वायुकाय होते हैं। दीन्द्रिय से पझेन्द्रिय परिमाण
बेइंदियाइया पुण पयरं पज्जत्तण अपज्जत्ता।
संखेजा संखेजेणागुलभागेणऽवहरेजा।।१६४।। गाथार्थ-पर्याप्त तथा अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय