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क्षेत्र-द्वार
१४३ २, शर्करा प्रभा ७: धनुष ६ अंगुल १५ धनुष १२ अंगुल ३. बालुकाप्रभा १५ धनुष १२ अंगुल ३१ धनुष ४. पंकप्रभा ३१ धनुष
६२६ धनुष ५. धूमप्रभा
१२५ धनुष ६. तमःप्रभा १२५ धनुष
२५० धनुष ७. तमस्तमप्रभा २५० धनुष
५०० धनुष उत्तर वैक्रिय शरीर तो सभी नारकी जीवों का उनके मूल शरीर से द्विगुणित समझना चाहिए, यथा- सातवीं नारको का एक हजार धनुष परिमाण उत्तर बैंक्रिय शरीर होता है।
प्रश्न- तीसरे विभाग का नाम तो क्षेत्र-द्वार हैं. किन्तु यहाँ चर्चा जीव के शरीर परिमाण की की जा रही है, क्या यह उचित है?
उत्तर- हाँ। यहाँ वस्तत: जीव के शरीर से अवगाहित क्षेत्र की ही चर्चा की जा रही है। अत: इस प्रसंग में जीव के शरीर परिमाण की चर्चा करना अनुचित नहीं है। विकलेन्द्रिय
बारस म जोयणाई तिगाउमं जोयणं च बोसव्व। बेइंदियाइयाणं हरिएस सहस्समभहियं ।। १७०।।
गाथार्थ-वीन्द्रिय का बारह योजन, वीन्द्रिय का तीन कोस, चतुरिन्द्रिय का एक योजन (चार कोस) तथा वनस्पति का एक हजार योजन से भी कुछ अधिक उत्कृष्ट देहपान होता है।
विवेचन- चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि के सैन्य शिविरों, छावनियो में जब चक्रवर्ती आदि का नाश होने वाला हो तब सम्मूच्छिम आसालिक नामक जीव की उत्पत्ति होती है। यह अधिकतम बारह योजन की लम्बाई वाला होता है। इसकी आयु अन्तर्मुहूर्त की है। कोई इसे द्वीन्द्रिय कहते हैं तथा कोई इसे पञ्चेन्द्रिय भी कहते हैं। . इसके मरने पर भूमि में इतना गहरा खड्डा हो जाता है कि इसमे चक्रवती की सारी सेना समा जाती है।
गाथा में कथित तीन कोस तथा चार कोस शरीर परिमाण वाले विकलेन्द्रिय जीव स्वयंभूरमण समुद्र में होते हैं।