________________
परिमाण-द्वार विवेचन- भवनपति देव प्रतर के असंख्यातवें भाग में स्थित श्रेणियों में जितने आकाश-प्रदेश हैं उतने परिमाण में हैं। जबकि ध्यन्तर तथा ज्योतिष्क अनुक्रम में पूर्व में कहे अनुसार- एक प्रतर के एक प्रदेश वाली संख्यात योजन परिमाण श्रेणी के आकाश-प्रदेशों की संख्या को दो सौ छप्पन अंगुल परिमाण क्षेत्र के आकाश-प्रदेशों की संख्या से भाग देने पर जो संख्या आती है, उसके समतुल्य होती है।
एक प्रदेश वाली संख्यात योजन परिमाण पंक्ति (श्रेणी) में जितने आकाशप्रदेश हैं; उन सभी से प्रतर के आकाश-प्रदेशों की राशि का जो भाग अपहत होता है अर्थात् ढक जाता है उस भाग में जितने आकाश-प्रदेश हैं उतने ही परिमाण में व्यन्तर देवता है अथवा ऊपर कहे हुए अतर-क्षेत्र के भाग के आकाश-प्रदेशों को यदि एक-एक व्यन्सर देव ग्रहण करें तो उस प्रतर-क्षेत्र के समस्त आकाशप्रदेशों को व्यन्तर देव एक ही समय में ग्रहण कर लेते हैं एवं २५६ अंगुल परिमाण एक प्रदेश वाली श्रेणी (पंक्ति) में जितने आकाश-प्रदेश हैं उन प्रदेशों की संख्या से प्रतर के आकाश-प्रदेश की राशि को भाग दिया जाय और उसके भागफल में जितने आकाश-प्रदेश हो उतनी प्रमाण-संख्या में ज्योतिष्क देवता होते हैं अथवा ऊपर कहे क्षेत्रखण्ड का आकाश-प्रदेशों की यदि एक-एक ज्योतिष्क देव अपहार करें तो उस सम्पूर्ण प्रतर-क्षेत्र के आकाश-प्रदेशों को वे सभी ज्योतिष्क देव एक समय में ही अपहृत कर लेगें।
महादण्डक में ज्योतिष्क देवों की संख्या व्यंतरों की अपेक्षा संख्यातगुणा अधिक बताई गई हैं। यहाँ व्यन्तर देवों को ज्योतिष्फ देवों की अपेक्षा संख्यात गुणहीन कहा गया है। दोनों का तात्पर्य एक ही है। वैमानिकों का परिमाण
सक्कीसाणे सेठीअसंख उपरि असंखभागो 3 ।
आणयपाणयमाई पल्लस्स असंखमागो उ ।।१५६।। गाथार्थ- सौधर्म और ईशान देवलोक के देवों की संख्या का परिमाण असंख्यात श्रेणियों के आकाश-प्रदेशों के समतुल्य माना गया है। उनके ऊपर के देवलोकों देवों की संख्या श्रेणी के असंख्यातवें भाग के आकाश-प्रदेशों के समतुल्य हैं।
विवेचन-पूर्व कथित स्वरूप वाले घनरूप लोक के किसी एक प्रतर में असंख्यात श्रेणियों होती हैं, पुन: उस प्रतर के असंख्यातवें भाग में भी असंख्यात श्रेणियाँ होती हैं उन प्रतर के असंख्यातवें भाग की असंख्यात श्रेणियों में जितने आकाश-प्रदेश हैं उतनी संख्या में सौधर्म देवलोक के देव होते हैं।