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जीवसमास गाथार्थ- उत्कृष्ट रूप से तो मनुष्यों की संख्या श्रेणी के अंगुल परिमाण क्षेत्र के आकाश-प्रदेशों के पहले वर्ग मूल का तीसरे वर्गमूल के साथ गुणा करने पर प्रदेशों की जो संख्या बने उतनी जानना चाहिए।
विवेचन-यहाँ "च" शब्द दुसरे प्रकार से मनुष्यों की उत्कृष्ट संख्या बताने के लिए है। एक प्रकार से उत्कृष्ट संख्या गाथा १५३ में बतायी, अब यहाँ दूसरे ढंग से मनुष्यों को उत्कृष्ट संख्या बताते हैं।
दूसरे प्रकार से एक श्रेणी के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश-प्रदेश हैं उतने मनुष्य हैं। जिस श्रेणी के आकाश-प्रदेशो का मनुष्य सम्पूर्णतः अपहार करते हैं. वह श्रेणी कैसी है? इसका उल्लेख करते हुए बताया गया है कि एक श्रेणी के अंगुल परिमाण क्षेत्र के आकाश-प्रदेशों की संख्या का पहला वर्गमूल करना फिर जो संख्या आये उसका वर्गमूल करना यह दूसरा वर्गमूल हुआ। पुन: जो संख्या आए उसका वर्गमूल करना यह तीसरा वर्गमूल हुआ। फिर उस पहले वर्गमूल की संख्या को तीसरे वर्गमूल को संख्या से गुणा करना। उस गुणाकार करने से श्रेणी खण्ड के आकाश-प्रदेशों की जो प्रतिनियत संख्या आती है मनुष्यों को अधिकतम संख्या उसके अनुरूप होती हैं। व्याख्या इस प्रकार है, कि श्रेणी के अंगुल परिमाण क्षेत्र के प्रदेशों की जो संख्या हैं उसके प्रथम वर्गमूल का तीसरे वर्गमूल की प्रदेश संख्या से गुणा करने पर जो प्रदेश राशि होती है उसी के समरूप लोक के मनुष्यों की संख्या होती है। मनुष्यों की सर्वाधिक संख्या वह होगी, जब प्रत्येक मनुष्य श्रेणी खण्ड के उन प्रदेशों में से एक-एक का अपहार करें और वह एक श्रेणी सम्पूर्णत: अपहरित हो जाये। लोक में उससे एक मनुष्य भी अधिक नहीं हो सकता है।
मनुष्यों में संमृच्छिम मनुष्य तो मिथ्यादृष्टि ही होते है, गर्भज मनुष्यों में भी मिथ्यादृष्टियों की संख्या अधिक होती है। शेष सास्वादन से लेकर अयोगी केवली तक के मनुष्यों की संख्या तो उनकी अपेक्षा अत्यल्प ही होती है। देवगति में भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क का परिमाण
सेवीओ असंखेमा भवणे वणवजोइसाण पपरस्स। संखेज्जजोयणंगुलदोसपछप्पत्रपलिभागो ।। १५५।।
गाथार्थ- भवनपति देवों की संख्या प्रतर के असंख्यातवें भाग में स्थित श्रेणियों के आकाश-प्रदेशों के समरूप है, जबकि व्यन्तर एवं ज्योतिष्क देवों की संख्या एक प्रदेश वाली संख्यात, योजन परिमाण श्रेणी के आकाश-प्रदेशों की संख्या को उसी के २५६ अंगुल परिमाण क्षेत्र के आकाश-प्रदेशों से भाग देने पर जो संख्या आती है, उसके समतुल्य होती है।