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जीवसमास यहाँ अधिक स्पष्टता के लिए गाथा का भावार्थ बताते हैं : अंगुल परिमाण प्रतर क्षेत्र में असंख्य श्रेणियाँ होती हैं किन्तु समझने के लिये ६५५३६ श्रेणियों की कल्पना करना। ६५५३६ का प्रथम वर्गमूल २५६, दूसरा वर्गमूल १६, तीसरा ४ तथा चौथा वर्गमूल २ होता है। किन्तु वास्तविक रूप में तो यह वर्गमूल भी प्रत्येक असंख्य श्रेणी रूप ही होता है, क्योंकि असंख्यात का वर्ग भी असंख्यात ही होगा। मात्र समझने के लिए उसका २५६ संख्या रूप पहला वर्गमूल भो असंख्यात हा हाता है। उसके असंख्यात भाग रूप ३२ श्रेणी की कल्पना कर किन्तु वास्तविक रूप में तो प्रत्येक श्रेणी भी असख्यात प्रदेशात्मक ही हैं फिर भी असत् कल्पना से उसे दस प्रदेशात्मक विचारना। इस प्रकार काल्पनिक रूप से प्रदेशों की संख्या ३२० आयेगी-यही पर्याप्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय वैक्रिय लब्धिवन्त तिर्यञ्च परिमाण जानना जो वास्तविक रूप मे तो असंख्यात ही होता है।
इस प्रकार इन गाथाओं में सर्वप्रथम मिथ्यादृष्टि एकेन्द्रिय तिर्यञ्चों का परिमाण बताया गया। उसके बाद पयौप्त एवं अपर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों का परिमाण बताया, तत्पश्चात् उत्तर वैक्रिय लब्धिवन्त पझेन्द्रिय तिर्यञ्चों का परिमाण बताया। अन्न स्त्री, पुरुष, नपुंसक रूप पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों का परिमाण बताते हैं। पर्याप्त पझेन्द्रिय तिर्यश्चों का परिमाण
संखेन्जहीणकालेण होइ पज्जत्ततिरियवहारी । संखेज-गुणेण तओ कालेण तिरिक्खअवहारो ।।१५२।।
गाथार्थ-पूर्व निर्दिष्ट प्रतर के प्रदेशों का संख्यातगुणा कम समय में पर्याप्त तिर्यञ्च अपहार कर लेते हैं, किन्तु उन्हीं संख्यातगुणा अधिक काल में तिरियञ्चिनी अपहार कर पाती है।
विवेधन- देवो के द्वारा एक प्रतर (परत) के सम्पूर्ण प्रदेशों का अपहार करने में प्रति समय में, एक-एक प्रदेश का अपहार करते हुए जितना काल लगता हैं उस काल से संख्यातगुणा पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय द्वारा प्रतर के प्रदेशों का अपहार करने में लगता है। पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकार के तिर्यञ्च संख्या में देवों से अधिक हैं अत: उनका अपहार काल देवों के अपहार काल की अपेक्षा कम होता है।
किन्तु तिर्यचनियाँ संख्या में देवों से संख्यातगुणा कम होने से देवताओं के अपहार काल की अपेक्षा उनका अपहार काल संख्यातगुणा अधिक होता है। विस्तार के लिए प्रज्ञापनासूत्र का महादण्डक सम्बन्धी पाठ देखें।