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जीवसमास मतिज्ञान तथा श्रतज्ञान ये दो प्रकार हैं।
विवेधन-ज्ञान प्रमाण संक्षेप से प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रकार के हैं।
प्रत्यक्ष अर्थात इन्द्रिय निरपेक्षा इन्द्रिय के बिना आत्मा की निर्मलता से होने वाला साक्षात पदार्थों का ज्ञान। ज्ञान अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान और केवलज्ञान ऐसा नीन प्रकार का है। इन्द्रिय निरपेक्ष होने के कारण आगम में इसे नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष भी कहा गया है।
जो ज्ञान इन्द्रिय सापेक्ष हैं, वं परोक्ष हैं। ऐसे ज्ञान दो है- मति एवं श्रुत! इनका वर्णन अगली गाथा में किया गया है
इंदियपव्यक्तपि य अणुमाणं उवमयं च मनाणं ।
केवलिभासियअत्याण आगमो होइ सुयनाणं ।। १४२।। ___ गाथार्थ-मतिज्ञान इन्द्रिय प्रत्यक्ष और इन्द्रिय परोक्ष दोनो हैं। इन्द्रिय परोक्ष के दो भेद हैं- अनुमान और उपमान। केवली भाषित अर्थों को बताने वाले आगमों को श्रुतज्ञान कहते है।
विवेचन- इन्द्रियों के बिना होने वाले ज्ञान अर्थात् नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान के तीन प्रकार पूर्व गाया में बताये गये हैं। इस गाथा में इन्द्रिय प्रत्यक्ष के पांच प्रकार बताये गए हैं- १. श्रोतेन्द्रिय प्रत्यक्ष, २. चक्षुरिन्द्रिय प्रत्यक्ष, ३. नाणेन्द्रिय प्रत्यक्ष, ४. जिह्वेन्द्रिय प्रत्यक्ष, ५. स्पर्शनेन्द्रिय प्रत्यक्ष।
प्रत्यक्ष शब्द में प्रति+अक्ष ऐसे दो शब्द हैं। अक्ष शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- ''आक्ष्णोति ज्ञानात्मना व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा' अर्थात् "अक्ष" जीव या आत्मा को कहते हैं क्योंकि जीव ज्ञानरूप से समस्त पदार्थों को व्याप्त करता है, जानता है। जो ज्ञान साक्षात् आत्मा से उत्पन्न हो, जिसमे इन्द्रियादि किसी माध्यम की अपेक्षा न हो वह प्रत्यक्ष कहलाता है। इस दृष्टि से तो अवधि, मन:पर्यय और केवल- ये तीनों ज्ञान ही प्रत्यक्ष हैं। किन्तु अक्ष का एक अर्थ इन्द्रिय भी होता है अत: लोक व्यवहार में इन्द्रिय से होने वाले ज्ञान को भी प्रत्यक्ष कहा जाता है। यहां इसी लोक व्यवहार के आधार पर इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा गया है।
इन्द्रिय परोक्ष के अनुमान और उपमान दो भेद हैं
१. अनुमान प्रमाण-अनुमान तीन प्रकार का हैं, १. पूर्ववत् २. शेषवत् ३. दृष्ट साधर्म्यवत् । अनु अर्थात् पश्चात् और मान अर्थात् ज्ञान। साधन के ग्रहण (दर्शन) और सम्बन्ध के स्मरण के पश्चात् होने वाले ज्ञान को अनुमान कहते हैं तात्पर्य यह है कि साधन (हेतु) से जिस साध्य का ज्ञान होता है वह अनुमान