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परिमाण-द्वार
५. यथाख्यात चारित्र-यह शब्द प्राकृत में “अहक्खाय' रूप में है। इसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति इस प्रकार जानना चाहिये। अह+आ+अक्खाय। यहाँ अह-अथ शब्द यथातथ्य अर्थ मे और आ-आङ् उपसर्ग अभिविधि अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और अक्खाय क्रिया पद है। जिसकी संधि होने से अहाक्खाय शब्द बनता है फिर “हस्व: संयोगे" इस सूत्र से 'अहक्खाय' पद बन जाता है इसका अर्थ यह हुआ कि यथार्थ रूप से जो चारित्र पूर्णतः कषाय रहित हो उसे यथाख्यात चारित्र कहते हैं।
इस चारित्र के दो भेद होते हैं-- प्रतिपाती और अप्रतिपाती।
१. प्रतिपाती• जिस जीव का मोह उपशान्त हुआ हो उसे प्रतिपाती कहते हैं।
२. अप्रतिपाती- जिसका मोह सर्वथा क्षीण हो गया हो उसे अप्रतिपाती कहते हैं।
आश्रयी के भेद से इस चारित्र के निम्न दो भेद हैं१. छानस्थिक- छयस्थ अर्थात् ग्यारहवें तथा बारहवें गुणस्थानवतों जीव।
२. केवलिक- केवलज्ञान को प्राप्त तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव। यद्यपि ग्यारहवें तथा बारहवें गुणस्थानवी जीव का मोह सर्वथा उपशान्त या क्षय हो जाता है परन्तु ज्ञानावरणीयादि तीन के शेष रहने से उन्हें छद्मस्थ कहते हैं। केवली के चारों घाती कर्म नष्ट हो जाते हैं।
इस प्रकार चारित्र गुण का प्ररूपण जानना चाहिये। अब क्रम प्राप्त नय प्रमाण का निरूपण करते हैं
नय-प्रमाण से जानी हुई अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक धर्म को मुख्य रूप से जानने वाले ज्ञान को “नय' कहते हैं।
विस्तार से तो नय अनेक हैं क्योंकि एक वस्तु के विवेचन की जितनी विधियों हो सकती हैं उतने ही नय हो सकते हैं परन्तु संक्षेप से नय के दो भेद हैं- १, द्रव्यार्थिक और २. पर्यायार्थिक। द्रव्य अर्थात् सामान्य को विषय करने वाले नय को द्रव्यार्थिक नय कहते हैं और पर्याय अर्थात विशेष को विषय करने वाले नय को पर्यायार्थिक नय कहते हैं। सामान्यतया नयों के निम्न मेद किये जाते हैं। द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद है- नैगम, संग्रह और व्यवहार। पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं- ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत।
__सिद्धसेन आदि तार्किकों के मत को मानने वाले द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद मानते हैं। वे नैगम को भी स्वतन्त्र नय नहीं मानते हैं। किन्तु ऋजुसूत्र को