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परिमाण द्वार
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सात रज्जु लम्बी आकाश-प्रदेश की पंक्ति को श्रेणी कहते हैं तथा उसके वर्ग को प्रतर कहते हैं। गाथा १०३ के विवेचन में भी श्रेणी, वर्ग, प्रतर आदि शब्दों को स्पष्ट किया गया है। इनका विस्तृत विवेचन पञ्चम कर्मग्रन्थ की गाथा ९७ के भावार्थ में दिया गया है।
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, शतक चौंतीस सूत्र सैंतीसवें ( ३७ ) के विवेचन में विग्रह गति एवं श्रेणी का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि- एक स्थान से मरण करने के पश्चात् दूसरे स्थान पर जाते हुए जीव की जो गति होती है उसे विग्रह गति कहते हैं। वह श्रेणी के अनुसार होती है। जिससे जीव और पुद्गलों की गति होती है ऐसी आकाश-प्रदेश की पंक्ति को श्रेणी कहते है। जीव और पुद्गल एक स्थान से दूसरे स्थान पर श्रेणी के अनुसार ही जा सकते हैं। वे श्रेणियाँ सात प्रकार की बताई गई हैं जिनका उल्लेख मूल पाठ में भी हैं
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५.
ज्वायता- सांधी गति से जाने वाले जीव ऋज्वायता श्रेणी वाले कहलाते हैं । इस श्रेणी से गति करने वाला जीव एक ही समय में गन्तव्य तक पहुँच जाता है।
२. एकतोक - एक मोड़ के बाद जन्म लेने वाला जीव एकतोवक्र श्रेणी वाला कहलाता है। इस जीव को दो समय लगते हैं।
३. उभयतोवक्र - दो बार वक्र गति करने वाले जीव उभयतोवक्र श्रेणी वाले कहलाते हैं- इसमें तीन समय लगते हैं।
४. एकत: खा - "ख" अर्थात् आकाश इस श्रेणी के एक ओर बस नाड़ी के बाहर का आकाश आया हुआ है। इसलिए इसे एकत: खा श्रेणी कहते हैं । आशय यह है कि जिस श्रेणी से जीव या पुद्गल त्रस नाही के बायें पक्ष से प्रसनाड़ी में प्रवेश करे और फिर बस नाड़ी से जाकर उसके बाँयी ओर वाले भाग में उत्पन्न हों उसे "एकत: खा" श्रेणी कहते हैं। इस श्रेणी में १, २, ३, ४ समय की वक्रगति होने के कारण भी उसे क्षेत्रापेक्षा पृथक कहा है।
५. उभयतः खात्रसनाड़ी के बाहर में बायें पक्ष में प्रवेश करके उस नाड़ी से जाते हुए जिस श्रेणी से दाहिने पक्ष में उत्पन्न होते हैं उसे "उभयतः खा" श्रेणी कहते हैं।
६. चक्रवाल- जिस श्रेणी के माध्यम से परमाणु आदि गोल चक्कर 'लगाकर अपने स्थान पर जाते है उसे चक्रवाल श्रेणी कहते हैं।
७.
पर जाते हैं उसे अर्धचक्रवाल श्रेणी कहते हैं।
अर्थ चक्रवाल - जिस श्रेणी से जीव आधा चक्कर लगाकर अपने स्थान