________________
परिमाण-द्वार क्षेत्रों के मध्य के बाईस तीर्थकरों के साथ और महाविदेह के सभी तीर्थकरों के साधु ग्रहण करते हैं क्योंकि उनकी उपस्थापना नहीं होती अर्थात् उन्हें महानतों में पुन: स्थापित करने रूप दूसरी बार दीक्षा नहीं दी जाती है।
२. छेदोपस्थापनीय चारित्र-जिस चारित्र में पूर्व दीक्षा पर्याय का छेद कर के पुन: पहावतों की उपस्थापना की जाती है- वह छेदोपस्थापनीय चारित्र है। यह दो प्रकार है- सातिचार व निरतिचार।
१. महाव्रतों में से किसी का विधात करने वाले साधु को पुन: महाव्रत में स्थापित करना सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र है।
२. नवदीक्षित को बड़ी दीक्षा देने रूप चारित्र निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र है। यह चारित्र भरत-ऐरावत क्षेत्र में प्रथम व अन्तिम तीर्थकर के समय में होता है।
. ३. परिहार विशुद्धि धारित्र- तपविशेष की साधना से जिस चारित्र में विशुद्धि प्राप्त की जाती है उसे परिहार विशुद्धि चारित्र कहते है। इसके दो भेद हैं- निर्विश्यमानक . कायिकः।
१. जिस चारित्र में साधक प्रविष्ट होकर तपविधि के अनुसार तपश्चरण कर रहे हों उसे निर्विश्यमानक परिहार विशुद्धि चारित्र कहते हैं। २. जिसमें तविधि के अनुसार तप कर चुके हों उसे निर्विष्टकायिक परिहार विशुद्धि चारित्र कहते हैं। निर्विश्यमानक तपाराधना करते है और निर्विष्टकायिक उनकी सेवा करते हैं
नौ साधु मिलकर इस परिहार तप की आराधना करते हैं उनमे से चार साधक निर्विश्चमानक तप का आचरण करने वाले होते हैं तथा शेष रहे पांच में से चार उनके अनुपारिहारिक अर्थात् वैयावच्च करने वाले होते हैं एक साधु कल्पस्थित वाचनाचार्य होता है।
निर्विश्यमान साधक ग्रीष्म में जघन्य चतुर्थ भक्त (एक उपवास), मध्य षष्ठभक्त (दो उपवास), उत्कृष्ट अष्टभक्त (तीन उपवास) करते है। शीतकाल में दो, तीन, चार तथा वर्षा काल में तीन, चार, पांच उपवास करते हैं। यह क्रम छह मास तक चलता है। पारणे के दिन अभिग्रह सहित आयम्बिलव्रत (मात्र एक समय उबले धान का भोजन) करते हैं। भिक्षा में पांच वस्तुओं का ग्रहण और दो का अभिग्रह होता है। कल्पस्थित परिचारक पद ग्रहण करने वाले या वैयावृत्य करने वाले सदा आयम्बिल ही करते हैं।
इस प्रकार छह माह तक तप करने वाले साधक बाद में वैयावृत्य करने वाले बनते हैं। ये भी पूर्व तपस्त्रियों की तरह तपाराधना करते हैं।
-
-