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मङ्गलाचरण होता है, अतः इसे अपूर्वकरण भी कहते हैं। इन अपूर्व परिणामों में स्थित जाव मोहकर्म का क्षय या उपशम करने को उद्यत होता है। इस अवस्था में साधक अधिकांश वासनाओं से मुक्त होता है। यद्यपि इस नवें गुणस्थान में अवशिष्ट वासनारूपी शत्रुओं पर भी विजय प्राप्त कर ली जाती है फिर भी उनका राजा सूक्ष्म लोभ छद्म रूप से बच निकलता है। अग्रिम दसवें गुणस्थान में उस पर विजय प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। चूँकि वह विजय यात्रा दो रूप में चलती है, एक तो शत्रु सेना को नष्ट करते हुए आगे बढ़ता है तथा दूसरा उसे उपशमित करते हुए, दबाते हुए आगे बढ़ता है। इन्हें क्रमशः क्षायिक एवं औपशमिक श्रेणी कहते हैं। उपशमित विजय यात्रा विशेष लाभकर नहीं होती हैं, क्योकि समय पाकर वासनारूपी शत्रु-सैनिक पुनः एकत्रित होकर उस विजेता आत्मा पर आक्रमण कर उसे पराजित कर देने हैं। वह ग्यारहवे गुणस्थानवती उपशान्त मोह को अवस्था है जहाँ से साधक पतित हो जाता है लेकिन जो विजेता शत्र सेना का निर्मल करता हुआ आगे बढ़ता है वह अन्त में माह रूपी शत्रु पर पूर्ण विजय को प्राप्त कर लेता हैं। यह अवस्था क्षीणमोह नामक बारहवें गणस्थान में प्राप्त होता है।
चारित्रमोह के उपशमन या क्षय में उद्यत. अपूर्वकरण से युक्त साधक इस गुणस्थान में अपूर्व प्रक्रियाओ से जुड़ता है- इन प्रक्रियाओं को जैन पारिभाषिक शब्दों में- १. स्थितिघात, २. रसघात, ३. गुणश्रेणी, ४. गुण-संक्रमण और ५. अपूर्वस्थितिबंध कहा गया है।
बंधनों से बंधा हुआ कोई भी व्यक्ति बंधनो के शिथिल या जीर्ण-शीर्ण होने पर प्रसन्नता का अनुभव करता है। साथ ही पूर्व में वह जिन बंधनो को स्वशक्ति से तोड़ने में असमर्थ था अब वह अपनी शक्ति सं उन बधनों को तोड़ने की कोशिश करता है और बंधन- मुक्ति की निकटता से प्रसन्न होता हैं। ठीक इसी प्रकार अधिकांश बंधनों के नाश होने पर भावो की विशुद्ध रूप अपूर्व आनन्द की अनुभूति करता है तथा शेष कमों को नष्ट करने का प्रयास करता है और इस प्रयास में स्थितिधात (कर्मों की स्थिति में कमी) रसधात (कर्मों की तीव्रता में कमी), गुण-श्रेणी (कर्म दलिकों का अपने ढंग से आयोजन), गुण-संक्रमण (कर्मप्रकृतियों का अपने ढंग से संयोजन) और अपूर्व स्थितिबंध (अल्पतम स्थिति का बंध) आदि की प्रक्रिया करता है। इस अवस्था में साधक मुक्ति को अपने अधिकार क्षेत्र की वस्तु मान लेता है और उसकी प्राप्ति का प्रयास करता है।
.९. अनिवत्तिकरण गुणस्थान- इस गणस्थान मे अवस्थित जीवों के परिणामों की अपेक्षा परस्पर निवृत्ति (भेद या भिन्नता) न होने से इसे अनिवृत्ति करण गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान में जीवों का परिणाम प्रति समय एक सा होता है। यहाँ साधक सूक्ष्म लोभ को छोड़ चारित्रमोह की शेष सभी कर्म