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वचनयोग एवं गुणस्थान
सच्चे असच्चामोसे सणी उ सजोगिकेवली जाय । सपणी जा छमत्वो सेसं संखाइ अंतवर ।।५६ ।।
जीवसमास
गाथार्थ - सत्य तथा असत्य अमृषायोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगी केवली तक होते हैं। शेष अर्थात् असत्य और सत्यासत्य (मिश्र) — ये दो योग संज्ञी मिध्यादृष्टि से क्षीणमोह अर्थात् छद्यस्थावस्था तक हैं। शंख आदि द्वीन्द्रिय जीवों की भाषा में असत्य अमृषा रूप अंतिम वचनयोग होता है।
विवेचन - एकेन्द्रिय में मन तथा वचन योग का अभाव है । द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय तथा असंज्ञी पचेन्द्रिय में असत्य अमृषा भाषा होती है। चौदहवें गुणस्थान में योग न होने से भाषा अर्थात् वचनयोग का प्रश्न ही नहीं उठता।
सत्य तथा असत्य-अमृषा वचनयोग संज्ञी मिध्यादृष्टि से लेकर सयोगी केवली तक होती है। सातवे से बारहवें गुणस्थान तक शुद्धि बढ़ने पर भी सम्पूर्णत: ज्ञानावरणादि का क्षय न होने से महराकार की अपेक्षा से सत्यासत्य भाषा योग का कथन किया गया हैं। तेरहवें गुणस्थान में सत्य तथा असत्य - अमृषा ये दो भाषायोग ही सम्भव हैं।
किसके कितने शरीर काययोग होते हैं ?
सुरनारया विजच्वी नरतिरि ओरालिया सवेउव्वी । आहारया पर्मसा सव्वेऽ पज्जत्तया मीसा ।। ५७ ।।
गाथार्थ - देव तथा नारकी को वैक्रिय शरीर होता है। मनुष्य तथा तिर्यञ्च को औदारिक के साथ वैक्रिय शरीर भी होता है। चतुर्दशपूर्वधारी प्रमत्त साधु आहारक शरीर वाले होते हैं। अपर्याप्तावस्था में मिश्र शरीर होता है।
विवेचन - देव तथा नारक की जन्म से ही वैक्रिय शरीर की प्राप्ति होती हैं। मनुष्य तथा तिर्यञ्च को तय आदि से आत्म विशुद्धि होने पर वैक्रिय लब्धि प्राप्त हो जाती है अतः वे भी वैक्रिय शरीर बना सकते हैं। प्रमत्तसंयत में आहारक शरीर की सम्भावना से पाँच शरीर हो सकते हैं एवं अपर्याप्तावस्था में औदारिक, मिश्र, वैक्रियमिश्र, आहारकमिश्र शरीर होता हैं।
कार्मण योग तथा गुणस्थान
मिच्छा सासण अविरय भवंतरे केवली समुहया व
कम्मचओ काओगो न सम्ममिच्छो कुपण कालं ।। ५८ ।।
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गाथार्थ - मिध्यादृष्टि, सासादन तथा अविरत सम्यग्दृष्टि को भवान्तर में जाते
समय विग्रहगति करते हुए कार्मण काययोग होता है। केवली को समुद्घात करते