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जीवसमास
गाथार्थ - अवग्रह पाँच इन्द्रियों तथा मन से होता है। व्यंजनावग्रह मन तथा चक्षु को छोड़कर मात्र चार इन्द्रियों से होता है। इसी प्रदाय और धारणा पाँच इन्द्रियों तथा मन से होने के कारण वे छह-छह प्रकार के हैं।
विवेचन
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अवग्रह
१. (ख) अर्थावग्रह )
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दो प्रकार का होता है- (क) व्यंजनावग्रह तथा
(क) व्यंजनावग्रह — चार प्रकार का होता है। मन तथा चक्षु को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों से पदार्थ का संयोग होने पर जो अव्यक्त स्पर्शानुभूति होती है, वह व्यंजनावग्रह है।
(ख) अर्थावग्रह — व्यंजनावग्रह की अपेक्षा व्यक्त किन्तु ईहा, अवाय की अपेक्षा सूक्ष्मबोध अर्थावग्रह है । पाँच इन्द्रियों एवं मन के माध्यम से होने वाले इस ज्ञान में बोध की अस्पष्टता रहती हैं। मात्र इतना भान होता हैं कि कुछ हैं परन्तु यह क्या है इसका स्पष्ट निर्णय नहीं हो पाता है।
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२. ईहा आकाश में किसी वस्तु को उड़ता हुआ देखकर यह विचार करना कि यह पतंग है या कोई पक्षी ईहा है।
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३. अवाय - यह पंतग ही है- ऐसा निर्णय लेना अवाय है।
४. धारण्य - निर्णित पदार्थ को बुद्धि में धारण कर लेना धारणा है। जिससे कालान्तर में उसे देखने पर तुरन्त निर्णय दिया जा सके कि यह वही वस्तु हैं जिसे मैंने पूर्व में देखा था।
अंगपविडियर ओहि भवे पतिगुणं च विज्ञेयं ।
सुरनारएसु य भवे भवं प्रति सेसमियरेसुं ।। ६३ । । गाथार्थ -- श्रुत के दो भेद हैं- अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । इस प्रकार अवधिज्ञान के भी भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय — ये दो भेद हैं। देवों तथा नारकों में भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है तथा शेष अर्थात् मनुष्य और संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यों में गुणप्रत्यय अवधिज्ञान होता है।
विवेचन - श्रुतज्ञान के दो भेद हैं
१. अंगप्रविष्ट - आचारांग आदि ग्यारह अंग तथा दृष्टिवाद को अंगप्रविष्ट कहा गया है।
२. अंगबाह्य - उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यक आदि अंगबाह्य हैं।