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सत्पदप्ररूपणाद्वार वस्त्र आदि उपकरणों में ममत्व रखने के कारण उपकरण बकुश तथा शरीर के प्रति ममत्व रखने के कारण शरीर बकुश कहलाते हैं।
३. कुशील-जो संयम पालन करते हुए भी इन्द्रियाधीन बनकर मूल गुणों या उत्तरगुणों की विराधना कर दोष लगा लेते हैं किन्तु पुन: पश्चात्ताप कर लेते हैं वे कुशील कहलाते हैं। इनके दो भेद हैं-- १. प्रतिसेवना कुशील तथा २. कषाय कुशील। आचार के नियमों का भंग करने वाले प्रतिसेवना कुशील कहलाते हैं। संज्वलन कषायों के उदय से क्रोधादि के आवेश में आ जाने वाले कषाय-कुशील होते हैं।
४. निय-जैसे तेज हवा चलने पर धान का भूसा उड़ जाने के बाद धान में मात्र कुछ कंकर शेष रह जाते हैं ऐसे ही चारित्र के बहुत कुछ शुद्ध हो जाने पर जिनमें दोष रह जाते हैं. : पूणि माहे जाते हैं। ये मनि अपने मूलगुणों या उत्तरगुणों में कोई दोष नहीं लगाते हैं परन्तु इनमें किञ्चिद् लोभ अर्थात् अपने अस्तित्व का लोभ शेष रहता है। इनके भी दो प्रकार हैं १. उपशान्त कषायी एवं २. क्षीण कषायी। राख से ढके हुए अंगारे के समान जिनका कषाय पूर्णत: निर्मूल नहीं होता, वे उपशान्त कषायी हैं। पानी से बुझे हुए अंगारे के समान जिनके कषाय पूर्णतः समाप्त हो गये हैं वे क्षीणकषायो कहे जाते हैं।
५. स्नातक-जैसे कंकरों को निकालकर, धान को धोकर, साफ कर लिया जाता है ऐसे ही घाती कर्मरूपी मैल को धोकर साफ कर देने वाले मुनि स्नातक या केवली कहलाते हैं। ये केवली भी दो प्रकार के हैं- १. सयोगी केवली तथा २. अयोगी केवली। योग अर्थात् मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति शेष रहने पर सयोगी तथा योग का निरोध हो जाने पर अयोगी केवली कहा जाता है। इन पाँच प्रकारों के भी पाँच-पाँच प्रकार ठाणांग, स्थान ५ उद्देशक ३ सूत्र ४४५; भगवतीशतक २५, उद्देशक ६, सूत्र ७५१ के टिप्पण एवं पंचनिमेथीप्रकरण गाथा ४१ में बताये गये हैं।
९. दर्शन मार्गणा दर्शन एवं गुणस्थान
चरिंदियाइ छउसे चक्षु अधक्खू प सब छउपत्ये । सम्मे ये ओहिदंसी केवलदंसी सनामे य।।६९।।
गाथार्थ- अचक्षुदर्शन सभी छदास्थ प्राणियों को होता है किन्तु चतुरेन्द्रिय से लेकर छगस्थ अवस्था तक के प्राणियों को चक्षुदर्शन भी होता है। सम्यग्दृष्टि में अवधि दर्शन होता है तथा केवली में केवलदर्शन होता है।