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सत्पदप्ररूपणाद्वार
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स्पर्धक में शुभ तथा अशुभ दो प्रकार का रस होता है। शुभ को गाय के दूध आदि की उपमा बाला तथा अशुभ को नीम के रस की उपमा वाला समझना चाहिये ।
एक स्थानीय रस- जो दूध या गन्ने का रस उबला हुआ नहीं हैं उसकी मिठास एक स्थानीय रस कहा जाता हैं। उस रस में चुल्लू, अर्धचुल्लू, द्रोण आदि पानी डालते जाने से उसके मन्द मन्दतर आदि कई भेद हो जाते हैं पर फिर भी वह दूध हीं कहलाता है। ऐसे ही एकस्थानीय रस में तरतमता होने पर भी वह एकस्थानीय रस रहता है।
दिस्थानीय रस- उस रस को उबालकर आधा कर देने पर उसे द्विस्थानीय रस कहा जाता है। उसमें भी पानी, चुल्लू, अर्धचुल्लू आदि डाले जाने पर उसके भी कई भेद बनते हैं पर फिर भी उसे द्विस्थानीय रस ही कहा जाता है।
त्रि व चतुः स्थानीय रस - ऐसे ही उसको उबालने पर तीसरा या चौथा भाग शेष रहे उसमें भी लँड, मुल आदि पनी हान्ने जने पर तरलता आयेगी, उसे त्रिस्थानीय या चतु: स्थानीय रस कहा जायेगा ।
इसमें एकस्थानीय रस को शुभ द्विस्थानीय को शुभतर, त्रिस्थानीय रस को शुभतम तथा चतुर्थ स्थानीय रस को अतिशुभतम कहा जायेगा। यहाँ शुभ रस की विचारणा की, ठीक इसके विपरीत स्वभाव वाला अशुभ रस भी इसी प्रकार जान लेना चाहिये ।
यहाँ चतुःस्थानीय तथा त्रिस्थानीय सभी अशुभरस स्वयं के स्वाभाविक गुण को सम्पूर्ण रूप से हनन करने वाले होने से सर्वघाती हैं। द्विस्थानीय तो कुछ देशघाती तथा कुछ सर्वघाती हैं। एकस्थानीय तो मात्र देशघाती ही है।
इस प्रकार यह निश्चित हुआ कि ज्ञानावरण आदि अशुभ कर्म से सम्बन्धित स्पर्धक दो प्रकार के है देशघाती तथा सर्वघाती ।
देशघाती तथा सर्वघाती स्पर्धक क्या करते हैं इसका वर्णन आगे गाथा में किया गया है
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का कारण
सव्वेसु सव्वधासु हए देसोवधाइयाणं च ।
भागेहि मुच्यमाणो समए समए अनंतेहिं । । ७७ ।।
गाध्यार्थ- सभी सर्वघाती स्पर्धक (कर्मवगणा रूपी पुद्गल के स्कन्धों ) का क्षय करते हुए तथा देशघाती स्पर्धकों के अनन्तभाग को प्रति समय छोड़ते हुए जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है।