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जीवसमास अव्यभिचारी (नियत) कारण मानना चाहिये। इसमें शास्त्रश्रवण, प्रतिमापूजन आदि बाह्य निमित्त कभी कारण रूप बनते हैं और कभी नहीं भी बनते हैं, यह अधिकारी भेद पर अवलम्बित है। इसका स्पष्टीकरण उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में "तनिसर्गादधिगमाद्वा" (तत्वार्थ १/३) नामक सूत्र से किया है। यही बात पंचसंग्रह (१४८ की टीका) में आचार्य मलयगिरि ने भी कही है।
वस्तुतः सम्यग्दर्शन का प्रगटीकरण उसकी घातक कर्मप्रकृतियों का स्वाभाविक रूप से क्षय, क्षयोपशप या उपशम हो जाने पर भी होता है अथवा शाखश्रवण आदि अथवा बाह्य निमित्तों के कारण भी होता है, किन्तु वह सदैव ही सहेतुक होता है निहेतुक नहीं। सम्यग्दर्शन तथा गुणस्थान
उवसमवेयग खाया अविरयसम्माइ सम्मदिठ्ठीसु ।
उवसंतपप्पमत्ता तह सिद्धता जहाकमसो ।।७।।
गाथार्थ-अविरत सम्यग्दृष्टि में उपशम, वेदक (क्षायोपशमिक) तथा क्षायिक इन तीन में से एक सम्यक्त्व होता है। क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन अप्रमत्त गुणस्थान तक है। उपशम सम्यग्दर्शन ग्यारहवें गुणस्थान तथा क्षायिक सम्यग्दर्शन चतुर्थ गुणस्थान से सिद्धावस्था तक यथाक्रम पाया जाता है।
विवेचन-इन तीनों में से कोई एक सम्यग्दर्शन सभी सम्यक्त्वी जीवों में पाया जाता है।
औपशामिक सम्यग्दर्शन- उपशम श्रेणी में आरोहण करने वाले जीवों में ग्यारहवें गुणस्थान तक हो सकता है।
क्षयोपशामिक सम्यग्दर्शन--अप्रमत्त संयत नामक सप्तम गुणस्थान तक ही पाया जाता है. क्योंकि उसके बाद आठवें गुणस्थान से जीव की विकास यात्रा दो श्रेणियों में विभाजित हो जाती है-- १. औपशमिक और २. क्षायिक। अत: झायोपशमिक सम्यग्दर्शन सातवें गुणस्थान के पश्चात् नहीं रहता है।
क्षाधिक सम्बग्दर्शन- यह प्रगट होने के पश्चात् विनष्ट नहीं होता है, अत: वह चतुर्थ गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक ही नहीं अपितु सिद्धावस्था में भी रहता है।
प्रश्न-क्षायिक सम्यग्दर्शन चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सिद्धावस्था तक समान रूप से होता है, ऐसा क्यों कहा जाता है?
उत्तर-शकर चखने पर सदैव मीठी ही होगी, यह बात अलग है कि उसकी मात्रा कम-ज्यादा हो। परन्तु उसकी मिठास में अन्तर नहीं होगा।