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परिमाण द्वार
३. काल परिमाण
कालेति व एगाविहो कालविभागो य होई योगविहो । समयावलियाईओ अनंतकालेत्ति णावन्यो । । १२५ ।।
गाथार्थ - स्वरूपतः काल एक ही प्रकार का है, किन्तु काल का विभाग करने पर वह अनेक प्रकार का होता है। समय आवलिका आदि के भेट से काल के अनन्त भेद जानना चाहिये ।
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विवेचन -- काल का मूलतः कोई भेद नहीं हैं, परन्तु लोक व्यवहार की अपेक्षा से काल के अनेक भेद किये जाते हैं। जैसे समय, आवलिका, घड़ी, प्रहर, दिन, मास, वर्ष आदि अथवा भूतकाल भविष्यकाल, वर्तमानकाल आदि। कालो परम निरुद्धो अविभागी तं तु जाण समओति । तेऽसंखा आवलिया ता संखोज्जा य ऊसासो । । १०६ ।।
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गाथार्थ - काल के अत्यन्त सूक्ष्म और अविभाज्य भाग को 'समय' कहते हैं। असंख्यात समय की एक आवलिका तथा संख्यात आवलिका का एक श्वासोच्छ्वास्स होता हैं।
विवेचन जैन दर्शन में काल की सर्वाधिक सूक्ष्म इकाई "समय" है। समय को समझाने के लिए उदाहरण दिया है कि कमल के चिपके हुए पत्तों का जब भेदन करते हैं, तो एक पत्ते से दूसरे पत्ते तक सूई जाने में असंख्य समय व्यतीत हो जाते हैं। एक बार आंख की पलक झपकने में असंख्य समय निकल जाते हैं। ऐसे असंख्य समय की एक अवलिका तथा संख्यात आवलिका का एक श्वासोच्छ्वास होता है। वह श्वासोच्छ्वास भी कैसा होता है- यह आगे गाथा में बताया गया हैं।
पागल्लुस्सासो एसो पाणुत्ति सनिओ एक्को ।
पाणू व संत थोवो भोषा सत्तेव लवमाहू ।। १०७ ।।
गाभार्य - एक अनुद्विग्न स्वस्थ युवा मनुष्य के एक उच्छवास तथा निश्वास 'के काल को 'प्राण' कहते हैं। ऐसे सात प्राणों का एक स्तोक होता है। सात स्तोक का एक लव होता है।
टिप्पणी- उद्विग्न, अस्वस्थ तथा वृद्ध व्यक्ति का श्वांस अस्वाभाविक होगा अतः स्पष्टता के लिए यहाँ इन विशेषणों का ग्रहण किया गया है।