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परिमाण-द्वार
१०५ ऊपर बता आये हैं। पुनः उत्कृष्ट परीत असंख्यातमें एक जोड़ने से जघन्य यक्त असंख्यात संख्या बनती है। आवलिका भी इसी परिमाण वाली जानना चाहिये।
(२) जघन्ययुक्त असंख्यात से आगे जहाँ तक उत्कृष्टयुक्तअसंख्यात प्राप्त न हो तत्परिमाण संख्या को मध्यमयुक्तअसंख्यात कहते हैं।
(३) जघन्ययुक्त असंख्यात राशि को आवलिका (जधन्ययुक्तअसंख्यात) से गुणा करने से प्राप्त संख्या में से एक कम करने से उत्कृष्टयुक्त असंख्यात होता है अथवा जघन्यअसंख्यात असंख्यात राशि में से एक कम करने से उत्कृष्ट युक्तअसंख्यात होता है।
३. असंख्यात-असंख्यात निरूपण- (१) ऊपर जघन्य असंख्यातअसंख्यात का निरूपण किया अर्थात् जघन्य युक्तअसंख्यात को जघन्य युक्त असंख्यात से गुणित की गई राशि अथवा उत्कृष्ट युक्त असख्यात में एक प्रक्षेप करने से उपलब्ध राशि, जघन्य असंख्यात- असंख्यात होता है।
(२) तत्पश्चात् उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात प्राप्त होने से पूर्व तक की संख्या मध्यम असंख्यात-असंख्यात है।
(३) जघन्य असंख्यात असंख्याप्त को जघन्य असंख्यात असंख्यात से गुणित कर एक कम करने पर प्राप्त राशि उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात है।
कुछ आचार्य उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात की इस प्रकार से प्ररूपणा करते हैं.– जघन्य असंख्यात-असंख्यात का तीन बार वर्ग करके नीचे लिखो दस असंख्यातों की राशियां उसमें मिलाना- १. लोकाकाश के प्रदेश २. धर्मास्तिकाय के प्रदेश, ३, अथर्मास्तिकाय के प्रदेश, ४. एक जीव के प्रदेश, ५, सुक्ष्म एवं बादर अनन्तकाय, ६. प्रत्येकशरीर, ५. ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के स्थितिबंध के अध्यवसाय, ८. अनुभाग विशेष, ९. योगच्छेद प्रविभाग और १०. दोनों अर्थात् उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी कालों के समय। (त्रिलोकसार, गाथा ४२ से ४६)
उक्त दसों के प्रक्षेप के बाद पुन: इस समस्त राशि का तीन बार वर्ग प्राप्त करके प्राप्त संख्या में से एक न्यून करने से उत्कृष्ट असंख्यात-असंख्यात का प्रमाण होता है। ' नौ प्रकार के असंख्यात का वर्णन किया, अब अनन्त के भेदों का निरूपण करते हैं
अनन्त निरूपण-गाथा १३८ में तीन प्रकार के अनन्त बताये गये हैं। (१) परीत-अनन्त, (२) युक्तअनन्त, (३) अनन्त-अनन्त-ये तीनों भी तीन-तीन प्रकार के हैं।