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जीवसमास
उपशम सम्यक्त्व का काल पूरा होते ही इन तीनो में से कोई भी स्थिति भवितव्यता वश उदित होती है।
अन्तरकरण करने हेतु आत्मा प्रन्थि भेद करने के पश्चात् शीघ्रातिशीघ्र भावी अन्तरकरण की अवधि में स्थित मिथ्यात्व मोहनीयकर्म के दलिकों को ऊपर एवं नीचे स्थित दलिक-पुंज मे मिला देता है परिणामस्वरूप अन्तर्मुहूर्त जितनी अत्यल्पावधि में ही दलिक विरहित अन्तराल निर्मित हो जाता है। इसे ही अन्तरकरण प्रक्रिया कहते हैं। यह क्रिया अनिवृत्तिकरण के शेष काल में की जाती है। अन्तरकरण का प्रथम समय आ पहुँचने पर मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के किसी भी दलिक के उदय न होने से ऊपर निर्दिष्ट अन्यावस्था में रहा मिथ्यात्व मोहनीय कर्म सर्वथा अनुदित/उपशमित हो जाने के कारण उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, इन्न उपय और भान सर्व अवर्णनीय होता है।
- जैनतत्त्वज्ञान चित्रावलीप्रकाश, पृष्ठ ३८-३९
१३. संजी मार्गणा संजीद्वार एवं गुणस्थान
असण्णि अमणपंबिंदियंस सपणी उसमण छउमस्या। नोसण्णिनो असण्णी केवलनाणी ३ विण्णेआ।।८१।।
गाथार्थ- असंज्ञी (विवेकरहित) जीवों में मन रहित पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव समाहित हैं। संझी (विवेकयुक्त) जीवों में मनसहित सभी छद्मस्थ जीव समाहित हैं। केवलज्ञानी न तो संज्ञी होते हैं और न असंझी होते हैं, क्योंकि वहाँ विचार-विकल्प का अभाव है।
विवेचन- यहाँ संज्ञी (विचारसहित) एवं असंझी (विचाररहित) जीवों में विभेदक रेखा खींची गई है।
अमज्ञी वे जीव हैं जिन्हें मन नहीं है, इन्हें सम्मूर्छिम भी कहा जाता है। ये असंज्ञी जीव एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक होते हैं। माता-पिता के संयोग के बिना स्वतः जन्म लेने वाले जीव असंज्ञी कहे जाते हैं। ये जीव पानी, मिट्टी, गन्दगी आदि में स्वत: ही उत्पन्न होते हैं।
संज्ञी जीव का जन्म गर्म या उपपात से होता है। इनमें गर्भजपंचेन्द्रियतिर्यञ्च, गर्भजमनुष्य, नारक तथा देव आते हैं।
मनोलब्धि अर्थात चिन्तन या विचार सामर्थ्य से रहित जीव असंज्ञी कहे गये हैं। असंज्ञी जीवों को अपर्याप्तावस्था मे कभी-कभी सास्वादन नामक दूसरा गुणस्थान हो सकता है।