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जीवसमास
१०. लेश्या -- कृष्ण, नील और कापोत लेश्या में मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक चार गुणस्थान होते हैं। पीत और पद्म लेश्या में मिध्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयम तक सात गुणस्थान होते हैं। शुक्ललेश्या में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगी केवली तक तेरह गुणस्थान होते हैं किन्तु अयोगी केवली जीव लेश्या रहित होते हैं।
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११. भव्य भव्यों में चौदह गुणस्थान होते हैं किन्तु अभव्य जीवों में मात्र प्रथम गुणस्थान होता हैं।
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१२. सम्यक्त्व - क्षायिक सम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगी केवली तक ग्यारह गुणस्थान हैं। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत तक चार गुणस्थान हैं। औपशमिक सम्यक्त्व में असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर उपशान्तकषाय तक आठ गुणस्थान हैं। सम्यगमिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि अपने - अपने गुणस्थान में होते हैं।
१३. संज्ञा - संज्ञियों में क्षीणकषाय तक बारह गुणस्थान होते हैं। असंशियों में एक ही मिध्यादृष्टि गुणस्थान होता है। संज्ञा असंज्ञा से रहित जीव सयोग केवली और अयोग केवली इन दो गुणस्थानों में होते हैं।
१४. आहार - आहारकों में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगीकेक्ली तक तेरह गुणस्थान होते हैं। विग्रहगति को प्राप्त अनाहारकों में मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि तथा असंयतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान होते हैं। समुद्धात्तगत सयोगकेवली और अयोगकेवली अनाहारक होते हैं। सिद्ध भगवान गुणस्थानातीत हैं।
(तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका १/८ ) ।
उपयोग
नाणं पंचविहं पिय अण्णाणतिगं च सव्व सागारं । चउदसणमणगारं सधे तल्लक्खणा जीवा ।। ८३ ।।
गाथार्थ - ज्ञान के पाँच प्रकार तथा अज्ञान के तीन प्रकार हैं। ये सभी साकार (सविकल्प) उपयोग हैं। चारों ही दर्शन अनाकार (निर्विकल्प) उपयोग हैं। ये जीव के उपयोग रूप लक्षण हैं।
विवेचन – किसी पदार्थ का संवेदन और ज्ञान होना- उपयोग है। दूसरे शब्दों में जीव के द्वारा किसी अर्थ (वस्तु) का बोध उपयोग है। यह उपयोग दो प्रकार का है -- १. साकार और २. अनाकार । उसमें ग्रहण करने योग्य अर्थ से सम्बन्धित साकार अर्थात सविकल्प जो उपयोग है वह ज्ञान है तथा ग्राह्य अर्थ सम्बन्धित अनाकार अर्थात् निर्विकल्प उपयोग है, वह दर्शन है। सांकारोपयोग अर्थात् ज्ञान के आठ प्रकार तथा अनाकार अर्थात् दर्शन के चार प्रकार हैं।