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सत्पदप्ररूपणाद्वार
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संज्ञी जीवों को प्रथम से लेकर बारहवाँ गुणस्थान तक हो सकता हैं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवतीं केवली न तो संज्ञी होते हैं और न असंज्ञी |
प्रश्न- केवली न संज्ञी हैं न असंज्ञी हैं ऐसा क्यों कहा जाता है?
उत्तर - केवली में मन का प्रवृत्ति पूर्वक भूत भविष्य का चिन्तन नहीं होता । वे केवलज्ञान के प्रकाश में अतीत एवं अनागत सभी विषयों को जानते हैं अतः उनमें मन के विकल्प, स्मरण, चिन्ता आदि नही होते, अतः वे संज्ञी नहीं कहे जा सकते। दूसरी ओर मनोलब्धि सम्पन्न होने के कारण उन्हें असंज्ञी भी नहीं कहा जा सकता अतः केवल संज्ञी है और न असी । वं इन दोनों से अतीत होते हैं।
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संज्ञा का तात्पर्य आभोग अर्थात् मानसिकक्रिया विशेष से है। इसके ज्ञान और अनुभव ये दो भेद हैं
(क) ज्ञानसंज्ञा - इसके मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ये पाँच प्रकार हैं।
(ख) अनुभवसंज्ञा - इसके सोलह भेद इस प्रकार हैं(२) भय, (३) मैथुन, (४) परिग्रह, (५) क्रोध, (६) मान, (८) लोभ, (९) ओघ, (१०) लोक, (११) मोह, (१२) धर्म, (१४) दुःख, (१५) शोक और (१६) जुगुप्सा ।
(१) आहार,
(७) माया, (१३) सुख,
आचाराज नियुक्ति - गाथा ३८, ३९ मे तो अनुभव संज्ञा के ये १६ भेद किये गये हैं। लेकिन भगवतीसूत्र के शतक ७ के उद्देशक ८ में तथा प्रज्ञापना पद ८ में इनमें से प्रथम १० भेद ही निर्दिष्ट हैं।
ये सब संज्ञाएँ जीव में न्यूनाधिक रूप में पायी जाती हैं। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में ज्ञान चेतना का विकास क्रमशः अधिकाधिक है। उनके इस विकास के तर-तम के भाव को समझाने के लिए शास्त्र में इसके स्थूल रीति से चार विभाग किये गये हैं
९. ओघसंज्ञा- पहले विभाग में ज्ञान का विकास अत्यल्प है। यहाँ ज्ञान विकास इतना अल्प होता है कि जीव मूर्च्छित अवस्था में रहते हैं और इनमें संवेदन मात्र होता है। इस अव्यक्ततर चैतसिक विकास को ओघसंज्ञा कहते हैं। एकेन्द्रिय जीव ओघसंज्ञा वाले होते हैं।
२. हेतुवादोपदेशिक संज्ञा- दूसरे विभाग में ज्ञान का विकास इतना होता हैं कि जीव भूतकाल का ( सुदीर्घभूतकाल का नहीं) स्मरण कर सकता है जिससे इष्ट में प्रवृति तथा अनिष्ट में निवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति निवृत्ति विषयक ज्ञान को हेतुवादोपदेशिक संज्ञा कहा जाता है। यह संज्ञा विकलेन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय को होती है।