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सत्पदप्ररूपणाद्वार उदय में आकर निर्जरित हो जाते हैं उनका प्रदेशोदय मानना चाहिये। जैसेईर्यापथिक कर्म।
प्रश्न-मूलगाथा में सम्यक्त्व की प्राप्ति हेतु दर्शनमोहत्रिक का ही घात कहा है, दर्शनमोहत्रिक एवं कषायचतुष्क का घात नहीं, ऐसा क्यों? क्योंकि अन्यत्र तो सम्यग्दर्शन घाती सप्त अर्थात् दर्शनमोहत्रिक एवं अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क के धात को क्षायिक सम्यग्दर्शन का कारण कहा है?
उत्तर-सत्य यह है कि दर्शनत्रिक मुख्यत: सम्यग्दर्शन का अवरोधक है अत: उसके क्षय से ही क्षायिक सम्यक्त्व का प्रकटीकरण होता है। दर्शनमोहत्रिक का क्षय उसका सीधा कारण है और अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क का क्षय परोक्ष कारण है क्योंकि अनन्तानुबन्धी चतुष्क के क्षय होने पर ही दर्शनत्रिक का क्षय होता है। अत: दर्शनमोहत्रिक या दर्शन अवरोधक सप्तक में कोई विरोध नहीं है। एक का क्षय उसका प्रत्यक्ष कारण है और दूसरे का क्षय परोक्ष कारण है अतः अपेक्षा भेद से ऐसा कहा जाता है।
सम्यक्रख सहेतुक है या नितुक-इस प्रश्न का उत्तर यह है कि उसे निर्हेतुक नहीं मान सकते क्योकि जो वस्तु निर्हेतुक हो, उसे सर्वकाल में एवं सर्वत्र पल रूप होना चाहिये अथवा उसका अभान होना चाहिये। सम्यक्त्व के परिणाम न तो सब जीवों में समान होते हैं और न उनका पूर्णत; अभाव होता है इसलिए वह सहेतुक है।
सहेतुक मान लेने पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि उसका नियत हेत क्या है? प्रवचनश्रवण, प्रतिमापूजन आदि बाह्य निमित्त तो सम्यक्त्व के नियत कारण हो ही नहीं सकते, क्योकि इन बाझ निमित्तों के होते हुए भी अभव्यों की तरह ही अनेक भव्यों को भी सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती। सम्यक्त्व के प्रकट होने में नियत कारण जीव का भव्यत्व नामक स्वभाव विशेष है जब इस पारिणामिक भव्यत्व स्वभाव का परिपाक होता है तभी सम्यक्त्व लाभ होता है। भव्यत्व परिणाम साध्य रोग के समान है, कोई साध्य रोग स्वयमेव शान्त हो जाता है, किसी साध्य रोग को शान्त करने में वैद्य आदि की आवश्यकता पड़ती है
और कोई साध्य रोग ऐसा भी होता है जो बहुत दिनो के बाद मिटता है। भव्यत्व . भी ऐसा ही स्वभाव है, अनेक जीवों का भव्यत्य बाह्य निमित्त के बिना भी परिपाक
को प्राप्त करता है किन्तु ऐसे भी जीव हैं जिनके भव्यत्व स्वभाव का परिपाक होने में शास्त्र श्रवणादि बाह्य निमित्तों की आवश्यकता पड़ती है। ये बाझ निमित्त सहकारी कारण मात्र हैं। इसी से व्यवहार में वे सम्यक्त्व के कारण माने गये हैं परन्तु निश्चयदृष्टि से तो भव्यत्व के स्वभाव के परिपाक को ही सम्यक्त्व का