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जीवसमास
समाझ्यछेया जा नियट्टि परिहारमध्यमा । सुरुमा सुहुमसरागे उवसंताई अहक्खाया ।।६७।। गावार्थ - सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय चारित्र प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान से अनिवृत्ति बादरसम्पराय नामक नवें गुणस्थान तक होते हैं। परिहार विशुद्धि चारित्र अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में होता है। सूक्ष्मसम्पराय चारित्र सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान में होता है तथा यथाख्यातचारित्र उपशान्त मोह आदि अन्तिम चार गुणस्थानों में होता है ।
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विवेचन - सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय चारित्र चार गुणस्थानों अर्थात् प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण तथा अनिवृत्ति बादर सम्पराय गुणस्थानों में होता है। परिहार विशुद्ध आस्थान में होता है। सूक्ष्म संपराय चारित्र दसवें गुणस्थान में तथा यथाख्यात्तचारित्र उपशान्त नामक ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान तक रहता है।
नोट- प्रथम चार गुणस्थानों में संयम न होने से चारित्र का अभाव है। पाँचवे गुणस्थान में भी संयमासंयम होने से देशविरत चारित्र है। अतः पाँच चारित्रों का विकासक्रम छठे गुणस्थान से प्रारम्भ होता है।
श्रमणों के प्रकार
समणा पुलाय बसा कुसील निम्गंथ तह सिणाया य । आइतियं सकसाई वियराय छउमा य केवलिणो ।।६८
गाथार्थ - श्रमणों के पाँच प्रकार हैं- १. पुलाक, २. बकुश, ३. कुशील, ४. निर्णय तथा ५ स्नातक। इनमें पुलाक, बकुश और कुशील ये तीन सकषायी हैं। निर्मथ- वीतराग किन्तु छद्मस्थ होते हैं। स्नातक केवली होते हैं।
विवेचन – चारित्र का सद्भाव होने पर भी मोहनीय कर्म की विचित्रता के कारण श्रमणों के कई प्रकार हो जाते हैं। जैन परम्परा में श्रमणों के पाँच प्रकारों की चर्चा है
१९. पुलाक- जैसे धान काटने के बाद उसके पुले बाँध कर ढेर लगा देते हैं। उस ढेर में धान कम और भूसा एवं घास अधिक होता है ऐसे ही जिन श्रमणों में गुण कम एवं दुर्गुण अधिक हो उन्हें पुलाक कहा जाता है।
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२. वकुश - जिस प्रकार छिलके सहित धान में धान और भूसा दोनों होते हैं, ऐसे ही जो श्रमण गुण-अवगुण दोनों के धारक होते हैं वे बकुश कहे जाते हैं। उनके दो भेद हैं- १. उपकरण बकुश एवं २. शरीर बकुश। ऐसे श्रमण