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जीवसमास
अयोगी में योग का अभाव - योगरहित होने के कारण एक भी योग
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नहीं होता है।
वेद तथा कषाय मार्गणा
वेद तथा कषाय में गुणस्थान
नेरइया य नपुंसा तिरिक्खमणुया तिवेयया हुति । देवा य इत्विपुरिसा गेविज्जाई पुरिसवेया ।। ५९ ।। अनियन्त नपुंसा सश्रीपंचिंदिया व श्रीपुरिसा । कोहो माणो माया नियट्टि लोभो सरागंतो । । ६० ।।
गाथार्थ - नारकों में मात्र नपुंसक वेद, तिर्यच तथा मनुष्यों में तीनों वेद, वैमानिक देवों में स्त्री और पुरुष – यह दो वेद तथा मैवेयक आदि देवों में मात्र पुरुषवेद होता हैं।
संज्ञी पश्चेन्द्रिय जीवों में अनिवृत्तिबादरसम्पराय नामक गुणस्थान तक स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक - ये तीन वेद होते हैं। क्रोध, मान और माया— ये तीन कषाय भी अनिवृत्तिबादरसम्पराय तक होते हैं, किन्तु लोभ सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान तक रहता हैं ।
स्त्रीवेद - जैसे पित्त से मधुर पदार्थ की रुचि होती है उसी प्रकार जिस कर्म के उदय से स्त्री को पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा होती हैं, उसी को स्वी वेद कहते हैं।
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पुरुषवेद - जैसे कफ से खट्टे पदार्थ की रुचि होती हैं वैसे ही जिस कर्म उदय से पुरुष को स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा होती है, उसे पुरुष वेद कहते हैं।
नपुंसक वेद- जैसे पित्त और कफ के प्रभाव से मद्य के प्रति रुचि होती हैं उसी तरह जिस कर्म के उदय से नपुंसक को स्त्री-पुरुष दोनों साथ रमण करने की अभिलाषा होती हैं, उसे नपुंसक वेद कहते हैं।
( अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग, ६, पृष्ठ १४२७ ) ( बृहदकल्प, उद्देशक ४ ) ( कर्मग्रन्थ १/ २२) |
विवेचन - वेद अर्थात् पुरुष को स्त्री से, स्त्री को पुरुष से तथा नपुंसक को दोनों (स्त्री-पुरुष ) से भोग करने के जो भाव होते हैं, उसे वेद कहते हैं। वेद भी दो प्रकार के हैं। १. द्रव्यवेद अर्थात् शारीरिक संचरना तथा २ भाववेद अर्थात्
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काम वासना ।