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सत्पदप्ररूपणाद्वार
द्वारा जुड़ा होना है।
जिस संघयण में दोनों ओर से मर्कटबंध द्वारा जड़ी हुई दो हड्डियों पर तीसरी पट्टी की आकृति वाली हड्डी का चारों ओर से वेष्टन हो और जिसमें इन तीनों हड्डियों को भेदने वाली वज्रमय अर्थात् बहुत ही मजबूत हड्डी की कील लगी हो उसे 'वज्रमषभनाराचसंघयण' कहते हैं।
२. ऋषभनाराचसंघयन- जिस संघयण मे दोनों ओर से मर्कट बंध द्वारा जुड़ी हुई दो हड्डियों पर तीसरी पट्टी की आकृति वाली हड्डी का चारों ओर से वेष्टन तो हो परन्तु तीनों हड्डियों को जोड़ने वाली वज्र नामक हड्डी की कील ने हो उसे 'ऋषभनाराचसंघयण' कहते हैं।
३. नाराचसंघयन- हड़ियों का मात्र मर्कटबंध द्वारा जुड़ा होना और उसमें की (वज्र) तथा वेष्टन (ऋषभ) का न होना 'तारावसंघयण' हैं।
४. अर्घनारायसंघयण-जिस संघयण में एक ओर तो मर्कटबंध हो तथा दूसरी ओर कील हो उसे 'अर्धनाराचसंघयण' कहते हैं।
५. कीलिकसंघयर- जिस संघयण में हमियाँ केवल कील से जुड़ी हों उसे 'कलिकसंघयण' कहते हैं।
६. सेवार्तसंघयन-जिस संघयण में हड्डियाँ पर्यन्त भाग में एक दूसरे को स्पर्शित करती हई रहती हैं और उनके मध्य में मात्र चिकना पदार्थ होता है उसे 'सेवार्तसंघयन' कहते हैं।
(जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश) (पत्रवणा २३ कर्मप्रकृतिपद) (ठाणांग ६ सूत्र ४९४) (कर्मग्रन्थ - भाग १ पृ० ३९) नरतिरियाणं छप्पिय हवा हु विगलिंदियाण छेवळ। सुरनेरइया एगिदिया य सव्वे असंघयणी ।। ५011
गाथार्थ- मनुष्य तथा तिर्यञ्च जीवों में सभी संघयण पाये जाते हैं। विकलेन्द्रिय जीवों में मात्र अन्तिम सेवार्तसंघयन होता है। देव, नारक तथा एकेन्द्रिय जीवों में कोई संघयन नहीं होता है। - विवेचन-मनुष्य एवं तिर्यश्च को उपर्युक्त छः संघयन में से कोई एक संघयण अवश्य होता है। विकलेन्द्रिय को मात्र सेवा (अन्तिम) संघयन होता है। देव, मारक तथा एकेन्द्रिय को कोई संघयन नहीं होता क्योंकि इन जीवों में हड्डियों का अभाव है।