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सत्पदप्ररूपणाद्वार मुण्ड हाथ वाला यह आहारक शरीर प्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि बनाते हैं। यह शरीर अप्रतिघाती होता है।
४. तेजसशरीर-यह शरीर कांति या तेज देने के कारण तेजस. पदार्थों को जलाने वाला होने से दाहक तथा अन्नादि पचाने के कारण पाचक है। यह दो प्रकार का है- नि:सरणात्मक और अनि:सरणात्मक। अनि:सरणात्मक तेजस् शरीर भुक्त अन्नपान का पाचक होकर शरीर में रहता है तथा औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरों में तेज, प्रभा, कान्ति का निर्मित होता है। नि:सरणात्मक तेजस् सुभिक्ष, शान्ति आदि का कारण है एवं अशुभ तेजोलेश्या, नगरदाह (द्वारिका) आदि का कारण है। यह शरीर-तेजस् लन्धि से प्राप्त होता हैं।
५. कार्मण शरीर-अष्टविध कर्म समुदाय रूप कामण वर्गणाओं से बना हुआ औदारिक आदि शरीरों का कारणभूत तथा परभव में साथ जाने वाला शरीर कार्मण शरीर है।
__औदारिक आदि पाँच शरीरों का यह क्रम विन्यास उनकी उत्तरोत्तर सूक्ष्मता के कारण है। औदारिक स्वल्पपुद्गलों से निष्पत्र बादर शरीर है। क्रमश: अन्य शरीर उससे उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। कार्मण शरीर इतना सूक्ष्म है कि उसे देखा भी नहीं जा सकता है। जो शरीर जितने सूक्ष्म है उनमें सघनता क्रमश: अधिकाधिक है। तेजस एवं कार्मण शरीर समस्त संसारी जीवों को प्राप्त है तथा इन दोनों का अनादिकाल से सम्बन्ध है। ये दोनों सूक्ष्म शरीर मुक्ति पर्यन्त रहते हैं।
विवेचन-मनुष्यों में वैक्रिय तथा आहारक लब्धिधारी मनुष्यों को पाँच शरीर होते हैं। पर एक समय में एक मुनि को चार शरीर होना ही सम्भव है। विशिष्ट प्रसंग पर शरीर को विकुर्वित कर छोटा-बड़ा करना 'विकुर्वीकरण' है। इस प्रकार की योग्यता वाला शरीर वैक्रिय शरीर कहलाता है। चौदह पूर्वधारी मुनियों द्वारा शंका निवारणार्थ आहारक पुतला बनाना-आहारक शरीर कहलाता है। तिर्यश्च तथा वायुकाय में भी बैंक्रिय शरीर की सम्भावना की अपेक्षा से चार शरीर का कथन किया गया है (आगे गाथा ५७ देखें)।
योग मार्गणा सच्चे मीसे मोसे असच्चमोसे मणे य वाया य ।
ओरालियबेचिय आहारयमिस्सकम्मइए ।।५५।। गाथार्थ-सत्य, मृषा, सत्यमृषा (मित्र) तथा असत्यअमृषा ये चार मन के तथा ऐसे ही चार वचन के भेद हैं। औदारिक, वैक्रिय, आहारक तथा इन तीनों के मिश्र अर्थात औदारिक मिश्र, वैक्रिय मिश्र, आहारक मिश्र तथा कार्मण काययोग- ये १५ प्रकार के काययोग हैं।