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जीवसमास एवं वायुकाय के (विशिष्ट अवस्था में चार शरीर होते है।
बैंक्रिय, तेजस् तथा कार्मण- ये तीन शरीर देव तथा नारक को होते हैं। इसी प्रकार एकेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय जीवों को औदारिक, तेजस् तथा कार्मण-- ये तीन शरीर होते हैं।
विवेचन-जो जीर्ण-शीर्ण होता है अर्थात् उत्पत्ति समय से लेकर निरन्तर जर्जरित होता रहता है, उसे शरीर कहते हैं। संसार जीवों के शरीर की रचना शरीर नामकर्म के उदय से होती है, शरीर नामकर्म कारण है और शरीर कार्य हैं। औदारिक आदि वर्गनाएँ उनका उपादान कारण हैं और औदारिक शरीर नामकर्म आदि निमित्त कारण हैं उनके लक्षण क्रमश: इस प्रकार हैं
१. औदारिक शरीर-इसमें मूल शब्द उदार है। शास्त्रों में उदार के तीन अर्थ बताये गये हैं
१. जो शरीर उदार अर्थात् प्रधान है- जिस शरीर से तीर्थकर, गणधर आदि पद प्राप्त हो अथवा जिस शरीर से मुक्ति प्राप्त होती है अथवा जिससे संयम की आराधना की जा सकती है, उसे प्रधान या महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
२. उदार अर्थात् विशाल। वृद्धि के स्वभाव वाले इस औदारिक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना कुछ अधिक एक हजार योजन है, जबकि वैक्रिय शरीर की स्वाभाविक अवगाहना मात्र पाँच सौ धनुष है। औदारिक शरीर की यह उत्कृष्ट अवगाहना स्वयंभूरमण के मत्स्य तथा कमलनाल (प्रत्येकवनस्पति) की अपेक्षा से जानना चाहिये।
३. उदार का अर्थ है मांस, हड्डी, स्नायु आदि से निर्मित शरीर। इस शरीर के स्वामी मनुष्य एवं तिर्यञ्च होते हैं। अन्य शरीरों की अपेक्षा अल्प प्रदेश वाला होकर भी परिमाण में बड़ा होने से भी यह औदारिक शरीर कहलाता है।
२. वैक्रिय शरीर-विविध एवं विशिष्ट (विलक्षण) क्रिया करने वाले शरीर को बैंक्रिय शरीर कहते हैं। प्राकृत के 'वेठबिए' का संस्कृत में "विकुर्वित' रूप भी बनता है। यह दो प्रकार का होता है— लब्धि-प्रत्ययिक तथा भव-प्रत्ययिक। तप आदि से प्राप्त होने वाला लब्धि-प्रत्ययिक तथा भव अर्थात् जन्म के निमित्त से प्राप्त होने वाला भवप्रत्ययिक वैक्रिय शरीर कहलाता है। लब्धिजन्य वैक्रिय शरीर मनुष्य एवं तिर्यञ्च को तथा भवजन्य वैक्रिय शरीर नारक तथा देव को होता है।
३. आहारक शरीर-चतुर्दशपूर्वविद् मुनियों के द्वारा संशय निवारणार्थ, आगम के अर्थग्रहणार्थ या तीर्थकरों की ऋद्धि के दर्शनार्थ जो शरीर बनाया जाता है, आहारक शरीर कहलाता है। शुभ पुद्गल परमाणुओं से बना एक हाथ या