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जीवसमास नारकी शीत तथा उष्ण योनि वाले होते है तथा शेष जीव तानो प्रकार की योनि वाले होते है।
विवेचन-सभी प्रकार के (भवनवासी) देव तथा गर्भज जीव न अति शीत न अति उष्ण अर्थात् शीतोष्ण योनि में जन्म लेते हैं। अग्निकाय तो स्वभाव से उष्ण होने के कारण उनकी योनि उष्या होती है। नारकी में अत्यन्त शीत या अत्यन्त उष्ण योनि होती है। रत्नप्रभादि ऊपर के नरकों में मात्र उष्ण योनि है तथा नीचे के नरकों में शीत योनि है। प्रथम तीन नरकों में एकान्त रूप से लकड़ी के अंगारों से अनन्त गुना अधिक उष्णता होने के कारण वे मारकी जीव उष्ण योनि वाले कहलाते हैं। चौथी नारकी में अनेक प्रतर उष्ण होते हैं अत: उनमें जन्म होने पर उनकी योनि उष्ण होती है किन्तु उसमें कुछ प्रतर शीतल होने के कारण वहाँ शीत योनि भी होती है। वहाँ सर्दी में पड़ने वाली बर्फ से भी अनन्तगुना अधिक शीत होती है। पांचवें, छटे, सातवें नरक में एकान्त शीत वेदना है। अत: ये नारक जीव शीत योनि में जन्म लेते हैं। संघयण
वजरिसहनारायं वज्जं नाराययं च नारायं । अझं चिय नारायं खीलिय छेवल संधयणं ।।४८।। रिसहो च होड़ पट्टो वज्जं पुण कीलिया वियाणाहि । उभयो मक्कडबंध नारायं तं वियाणाहि ।।४९
गाथार्थ-१. वऋषभनाराच, २. ऋषभनाराच, ३. नाराच, ४. अर्धनाराच, ५. कीलिक तथा ६. सेवार्त ये छ: प्रकार के संघयण होते हैं।
वन अर्थात् काली, ऋषम अर्थात् पट्टा तथा दोनों तरफ से मर्कटबंध द्वारा कस लेने को 'नाराच' कहते हैं।
विवेचन- हड्डियों के मर्कटबंध पर हड्डियों का पट्टा लगा कर, उन्हें हड़ियों की कील से संधित करना ‘संघयण' कहलाता है।
जैसे मर्कट अर्थात् अन्दर का बच्चा अपनी माँ को, उसके कूदने के क्षणों में कसकर पकड़ लेता है उसी प्रकार हड्डियों का कसा हुआ संधान 'मर्कटबंध' कहलाता है।
सामान्यतः हड़ियों की रचना विशेष को 'संघयण' कहते हैं। इसके छ: भेद है
१. पनऋषभनारायसंघयन- वन का अर्थ कील है। ऋषभ का अर्थ है हड्डियों पर लपेटा गया पट्टा या वेष्टन है और नाराच का अर्थ दोनों ओर से मर्कटबंध