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सत्पदप्ररूपणाद्वार गाथार्थ-तिर्यञ्चगति में उत्पन्न होने वाले एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक के जीव तिर्यश्च कहे जाते हैं। इनमें भी संज्ञीपश्चेन्द्रियतिथंच एवं तिर्यश्चिणियाँ पर्याप्त तथा अपर्याप्त ऐसे दो प्रकार के होते हैं। इसी प्रकार मनुष्य भी पर्याप्त तथा अपर्याप्त ऐसे दो प्रकार के होते हैं।
विवेचन-- मनुष्यों के अतिरिक्त एकेन्द्रिय से लेकर पश्चेन्द्रिय पर्यन्त सभी प्राणी तिर्यञ्च कहलाते हैं। इनमें पञ्चेन्द्रियसंज्ञीतिर्यञ्च (पशु-जगत् के) जीवों में तिर्यञ्च तथा तिरियञ्चिनी अर्थात पुरुष तथा स्त्रो का पर्याय भेद होता है। ___ मनुष्यों में भी मात्र संज्ञीमनुष्यो में स्त्री-पुरुष का पेद होता है, सम्मूछिम मनुष्यों में नहीं। मनुष्यगति
ते कम्मभोगभूमिय अंतरदीवा य खितपविभत्ता।
सम्मुच्छिमा य गम्भय आरिमिलक्खुसि य सभेया ।।१५।। ___गाथार्थ- ये मनुष्य भी कर्मभूमिज, भोगभूमिज तथा अन्तरद्वीपज के रूप में क्षेत्रों के आधार पर प्रविभक्त किये गये हैं। ये सम्मूच्छिम और गर्भज तथा आर्य और म्लेच्छ भेद वाले भी होते हैं।
विवेचन- मनुष्यों का यह त्रिविध विभाजन तीन प्रकार की भूमियों में उत्पत्र होने की अपेक्षा से किया गया है।
१. कर्मभूमि-जहाँ व्यक्तियों को कर्म करने से ही भोग-उपभोग की सामग्री प्राप्त होती है अर्थात् जहाँ असि, मसि और कृषि से जीवन व्यवहार चलता है, ऐसी कर्मभूमियाँ पन्द्रह है- पाँच भरत, पाँच ऐरावत तथा पाँच महाविदेह। इन कर्मभूमियों से जीव मोक्ष-मार्ग की साधना करके मोक्ष जा सकते हैं तथा इन्हीं में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव आदि शलाका पुरुष जन्म लेते हैं। इन भूमियों से पाँचों. गतियों में जाना सम्भव है। महाविदेह क्षेत्र सदा कर्मभूमि के रूप में रहता है। शेष भरत, ऐरावत क्षेत्रों में कभी कर्मभूमि होती है और कभी मांगभूमि होती है।
२. अकर्मभमि (भोगभूमि)-भोगमि को अकर्मभूमि भी कहा जाता है। जहाँ व्यक्ति बिना कर्म किये ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेता है, जहाँ अति-मसि-कृषि आदि का व्यवहार नहीं होता तथा मानव कल्पवृक्ष के द्वारा ही अपना जीवनयापन करता है। जहाँ मनुष्य युगल के रूप में जन्म लेता है और साथ ही मरण प्राप्त करता है। ऐसी अकर्मभूमियों या भोगभूमियाँ तीस हैं। पाँच हिमवन्त, पाँच हरिवर्ष, पाँच देवकुरु, पाँच उत्तरकुरु, पाँच रम्यक् तथा पाँच हैरण्यवत्। अकर्म भूमि से मरकर मनुष्य देवगति में ही जाते हैं।